पच्चीस बोल - सतरहवें बोले लेश्या छः
सतरहवें बोले लेश्या छः - 1. कृष्ण लेश्या, 2. नील लेश्या, 3. कापोत लेश्या, 4. तेजो लेश्या, 5. पद्म लेश्या और 6. शुक्ल लेश्या।
• आधार-प्रज्ञापना पद 17, उत्तराध्ययन सूत्र अ.34
लेश्या - जो शक्ति आने वाले कर्मों को आत्मा के साथ चिपका देवे, उसको लेश्या' कहते हैं। वह शक्ति कषाय और योग से उत्पन्न होती है। जीव के शुभाशुभ परिणामों को भी लेश्या कहते हैं।
कषाय अथवा योग के निमित्त से जीव के होने वाले शुभाशुभ परिणाम को लेश्या' कहते हैं।
लेश्या के दो भेद होते हैं-अप्रशस्त और प्रशस्त।
अप्रशस्त लेश्या के 3 भेद - कृष्ण, नील और कापोत लेश्या।
प्रशस्त लेश्या के 3 भेद - तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्या।
दूसरी प्रकार से लेश्या के 2 भेद - द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या।
द्रव्य लेश्या - यह शरीर के वर्णादि के आधार पर होती है। नारकी, देवों में द्रव्य लेश्या जीवन पर्यन्त एक ही प्रकार की रहती है। मनुष्य, तिर्यंचों में बदलती रहती है। द्रव्य लेश्या पुद्गलरूप होती है।
भाव लेश्या - यह लेश्या विचार रूप होती है। सभी जीवों में भाव लेश्या परिणामों के साथ बदलती रहती है।
व्यावहारिक दृष्टिकोण से छह लेश्याओं का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार हैं
१. कृष्ण लेश्या - जिन जीवों के परिणाम अत्यन्त क्रूर एवं निर्दयी होते हैं, जो तीव्र हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप प्रवृत्तियों में दिन-रात लगे रहते हैं। दूसरे लोगों को दुःखी करने में ही अपना सुख समझते हैं। ऐसे जीवों के परिणाम 'कृष्णा लेश्या' वाले कहलाते हैं। इनका जीवन धर्म-शून्य होता है। इस लेश्या का वर्ण काजल एवं आँखों की कीकी से भी अधिक काला होता है। रस अत्यन्त कड़वा होता है। इसकी गंध अत्यधिक अशुभ होती है।
२. नील लेश्या - जो जीव हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप प्रवृत्तियों में रचे-पचे रहते हैं, बहुत समझाने पर उन प्रवृत्तियों में थोड़ी कमी ला पाते हैं। जो धार्मिक भावना से कोसों दूर रहते हैं, ऐसे जीवों के परिणाम 'नील लेश्या' वाले होते हैं। ऐसे व्यक्ति प्रायः ईर्ष्यालु, निर्लज्ज, मायावी, मूढ, प्रमादी एवं रसलोलुपी होते हैं। इसका वर्ण नीले अशोक वृक्ष के समान अथवा नीलमणि के समान नीला होता है। रस अत्यधिक तीखा होता है। इसकी गन्ध भी अधिक अशुभ होती है।
३. कापोत लेश्या - इसका वर्ण अलसी के फूल के समान, कबूतर की गर्दन के समान कुछ लाल और कुछ काला होता है। रस कच्चे आम के रस से अधिक कषैला होता है। इसकी गन्ध अशुभ होती है। कापोत लेश्या वाला जीव आचरण में वक्र, कपटी, अपने दोषों को छिपाने वाला, दुर्वचन बोलने वाला, चोरी एवं द्वेष करने वाला होता है।
४. तेजोलेश्या - इसका वर्ण हींगलू तथा गेरू के समान, उदय हए सुर्य के समान लाल होता है। इसका रस पके हुये आम के रस की तरह मधुर होता है। गन्ध भी शुभ होती है। तेजो लेश्या वाला जीव विनम्र, चपलता रहित, जितेन्द्रिय, अमायी, प्रियधर्मी, दृढ़धर्मी, पाप से डरने वाला एवं मोक्षपथगामी होता है।
५. पद्म लेश्या - इसका वर्ण हल्दी के टुकड़े तथा पटसन के फूल के समान पीला होता है। इसका रस अधिक मधुरता वाला होता है और गन्ध तेजोलेश्या से कई गुनी अच्छी होती है। पद्म लेश्या वाला अल्प क्रोडी, अल्पमानी, अल्पमायी, अल्पलोभी, प्रशान्तचित्त, आत्मदमनी, जितेन्द्रिय एवं उपशान्त होता है।
६. शुक्ल लेश्या - इसका वर्ण स्फटिक, शंखा, दूध की धारा तथा चाँदी के समान सफेद होता है। रस शक्कर से भी अनन्त गुण मधुर होता है। गन्ध शुभतम एवं स्पर्श अत्यन्त कोमल होता है। शुक्ल लेशी जीव आर्त एवं रौद्रध्यान को छोड़कर धर्म एवं शुक्ल ध्यान में एकाग्रचित्त होता है।
प्रथम तीन लेश्याएँ अप्रशस्त होने के कारण प्रायः अधिक पाप कर्म का बन्ध करवाती हैं। इसलिये इन्हें अधर्म लेश्या भी कहा है, अत: इन तीनों का परित्याग करना चाहिए। शेष तीन लेश्याएं मनुष्य, देवादि सुगति की दायक हैं। शुक्ल लेश्या में केवल ज्ञान भी प्रकट हो सकता है।