पच्चीस बोल - बीसवें बोले षटद्रव्यों के तीस भेद
बीसवें बोले षटद्रव्यों के तीस भेद
छः द्रव्यों के नाम - 1. धर्मास्तिकाय 2. अधर्मास्तिकाय 3. आकाशास्तिकाय, 4. कालद्रव्य, 5. जीवास्तिकाय और 6. पुदगलास्तिकाय
आधार- भगवती शतक 2 उद्देशक 10, उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन 28 गाथा 7-8
द्रव्य - 'गुणः पर्यायवद् द्रव्यम्' अर्थात् गुण और पर्यायों के समूह को 'द्रव्य' कहते हैं। इस संसार में कुल छः द्रव्य होते हैं। प्रत्येक द्रव्य की अपनी-अपनी मौलिक विशेषताएं होती हैं। इन विशेषताओं के आधार पर ही द्रव्यों की पहचान होती है, जिन्हें विशेष गुण के नाम से भी कहा जाता है।
गुण को ध्रुव (शाश्वत) तथा पर्याय को उत्पाद-व्यय युक्त कहा जा सकता है। ये तीनों द्रव्य के लक्षण कहलाते हैं।
१. धर्मास्तिकाय के 5 भेद - 1. द्रव्य से - एक द्रव्य। 2. क्षेत्र से - सम्पूर्ण लोक प्रमाण। 3. काल से - आदि अन्त रहित। 4. भाव से - वर्ण नहीं, गन्ध नहीं, रस नहीं, स्पर्श नहीं, अरूपी, अजीव, शाश्वत, लोकव्यापी और असंख्यात प्रदेशी है। 5. गुण से - चलन गुण। पानी में मछली का दृष्टान्त । जैसे - पानी के आधार से मछली चलती है, वैसे ही जीव और पुद्गल धर्मास्तिकाय के आधार से चलते हैं। जीवों के आगमन-गमन, बोलना-चलना, पलकों का झपकना या ऐसे ही मन, वाणी एवं शरीर की सभी प्रवृत्तियाँ धर्मास्तिकाय के निमित्त से सम्पन्न होती हैं। जिस प्रकार मछली पानी के बिना चल नहीं सकती, परन्तु पानी मछली को जबरदस्ती चला नहीं सकता। मछली अपनी शक्ति से ही चलेगी, परन्तु चलने में पानी सहायक अवश्य होगा, ठीक इसी प्रकार धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गल को जबरन नहीं चलाती, गति नही कराती, परन्तु गति करने में उदासीन निमित्त अवश्य बनाती है।
२. अधर्मास्तिकाय के 5 भेद - 1. द्रव्य से- एक द्रव्य, 2. क्षेत्र से - सम्पूर्ण लोक प्रमाण, 3. काल से - आदि अन्त रहित, 4. भाव से-वर्ण नहीं, गंध नहीं, रस नहीं, स्पर्श नहीं, अरूपी, अजीव, शाश्वत, लोकव्यापी और असंख्यात प्रदेशी है। 5. गुण से - स्थिर गुण। थके हुए पथिक को छाया का दृष्टान्त । जिस प्रकार से थके हुए पथिक के रुकने-ठहरने में छाया निमित्त-सहायक बनती है, उसी प्रकार ठहरे हुए जीव और पुद्गल में अधर्मास्तिकाय सहायक बनती है। वृक्ष आदि की छाया पथिक को जबरन नहीं रोक सकती, परन्तु थके हुए पथिक के रुकने में निमित्त अवश्य बनती है। ठीक इसी प्रकार जीव और पुदगल की स्थिति में, ठहरने में अअधर्मास्तिकाय निमित्त अवश्य बनती है, परन्तु जबरन जीव और पुद्गल की गति को रोक नहीं सकती, स्थिर नहीं कर सकती।
३. आकाशास्तिकाय के भेद - 1. द्रव्य से- एक द्रव्य, 2. क्षेत्र से - लोकालोक प्रमाण, 3. काल से - आदि अन्त रहित, 4. भाव से-वर्ण नहीं, गन्ध नहीं, रस नहीं, स्पर्श नहीं, अरूपी, अजीव, शाश्वत, लोकालोकव्यापी, लोक की अपेक्षा असंख्यात प्रदेशी व अलोक की अपेक्षा अनन्त प्रदेशी, 5. गुण से - अवगाहन गुण। स्थान (पोलार) देने का गुण। भींत में खुटी का दृष्टान्त।
यह द्रव्य धर्म, अधर्म, जीव, पुदगल इन सभी को अवकाश (स्थान) देता है। ये सभी आकाश द्रव्य पर स्थिर रहते हैं जबकि आकाश द्रव्य स्वयं अपने आप पर (स्वप्रतिष्ठ) रहा हुआ है।
४. काल द्रव्य के भेद - 1. द्रव्य से - अनन्त द्रव्य (एक काल अनन्त द्रव्यों पर प्रवर्ते), 2. क्षेत्र से- अढाई द्वीप प्रमाण, 3. काल से- आदि अन्त रहित, 4. भाव से- वर्ण नहीं, गंध नहीं, रस नहीं, स्पर्श नहीं, अरूपी, अजीव, शाश्वत्, अढ़ाई द्वीप प्रमाण, अप्रदेशी। 5. गुण से - वर्तन गुण, कपड़े और कैंची का दृष्टान्त। वर्तन-परिवर्तन काल का लक्षण है। नये को पुराना करे, पुराने को नष्ट करे। प्रदेश रहित होने से काल अस्तिकाय नहीं है।
५. जीवास्तिकाय के 5 भेद - 1. द्रव्य से - अनन्त द्रव्य, 2. क्षेत्र से - सम्पूर्ण लोक प्रमाण, 3. काल से - आदि अन्त रहित, 4. भाव से - वर्ण नहीं, गन्ध नहीं, रस नहीं, स्पर्श नहीं, अरूपी, जीव, शाश्वत, लोकव्यापी, एक जीव की अपेक्षा असंख्यात प्रदेशी तथा अनन्त जीवों की अपेक्षा अनन्त प्रदेशी है। 5. गुण से - उपयोग गुण। चन्द्रमा की कला का दृष्टान्त । जैसे आवरण के कारण चन्द्रमा न्यूनाधिक प्रकाशित होता है। वैसे ही ज्ञानावरणादि के कारण आत्मा का उपयोग गुण न्यूनाधिक प्रकट होता है।
६. पुद्गलास्तिकाय के 5 भेद - 1. द्रव्य से - अनन्त द्रव्य, 2. क्षेत्र से - सम्पूर्ण लोक प्रमाण, 3. काल से - आदि अन्त रहित, 4. भाव से - वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श युक्त, रूपी, अजीव, शाश्वत, लोकव्यापी, संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी तथा 5. गुण से - पूरण, गलन, विध्वंसन गुण। दृष्टान्त - आकाश में बादलों का मिलना व बिखरना। बादल की तरह पुदगल भी मिलते और बिखरते रहते हैं, क्योंकि जो वस्तु पूरण होती रहे और गलती रहे, कम होती रहे, उसे 'पुद्गल' कहते हैं। संसार में जो भी वस्तुएँ हमें दिखाई देती हैं, वे सभी पुदगल का एक अंश हैं।