पच्चीस बोल-बावीसवें बोले श्रावकजी के बारह व्रत
बावीसवें बोले श्रावकजी के बारह व्रत
1. पहले अहिंसा व्रत में श्रावकजी त्रस जीव को संकल्प-पूर्वक मारे नहीं, मरावे नहीं, मन, वचन और काय से।
2. दूसरे सत्य व्रत में श्रावकजी मोटा(स्थूल) झूठ बोले नहीं, बोलावे नहीं, मन वचन और काया से।
3. तीसरे अचौर्य व्रत में श्रावकजी स्थूल चोरी करे नहीं, करावे नहीं, मन, वचन और काया से।
4. चौथे परदार विवर्जन एवं स्वदार संतोष व्रत में 'श्रावकजी पर-स्त्री सेवन का त्याग करे और अपनी स्त्री की मर्यादा करें। (श्राविकाएँ-पर पुरुष विवर्जन एवं स्वपति सन्तोष व्रत में, इस प्रकार बोलें।)
5. पाँचवें परिग्रह विरमण व्रत में श्रावकजी परिग्रह की मर्यादा करें।
6. छठे दिशा परिमाण व्रत में श्रावकजी छह दिशा की मर्यादा करें।
7. सातवें उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत में श्रावकजी छब्बीस बोलों की मर्यादा करें और पन्द्रह कर्मादान का त्याग करें।
8. आठवें अनर्थ-दण्ड विरमण व्रत में श्रावकजी अनर्थ-दण्ड का त्याग करें।
9. नौवें सामायिक व्रत में श्रावकजी प्रतिदिन शुद्ध सामायिक करें। (सामायिक का नियम रखों)।
10. दशवे देशावगासिक व्रत में श्रावकजी देशावगासिक व्रत करें, संवर करें, चौदह नियम चितारें।
11. ग्यारहवें पौषधोपवास व्रत में श्रावकजी प्रतिपूर्ण पोषध, सात प्रहर के लिए दयाव्रत आदि करें।
12. बारहवें अतिथिसंविभाग व्रत में श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रतिदिन चौदह प्रकार की वस्तुओं में से जो निर्दोष हों, उन्हें देवे।
आधार- उपासक दशांग अ. 1, हरिभद्रीय आवश्यक अध्ययन 1
व्रत-माया, निदान व मिथ्यादर्शन शल्य से रहित होकर त्याग व मर्यादा में अवस्थित होना 'व्रत' कहलाता है। मैं अमुक पाप नहीं करुगा, इस प्रकार हिंसादि का प्रत्याख्यान करना व्रत कहलाता है। इच्छा, वांछा, कामना आदि का सोच-समझकर, विवेकपूर्वक त्याग करना, प्रतिज्ञा ग्रहण करना विरति है। यह विरति दो प्रकार की होती है 1. आंशिक विरति, 2. पूर्ण विरति।
आंशिक विरति अणुव्रत तथा पूर्ण विरति महाव्रत कहलाते हैं जो शल्य रहित होकर व्रत ग्रहण करता है, वही सच्चा व्रती होता है।
जो अगार (गृहस्थ) साधक हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह आदि पापों का पूर्णतः त्याग न करके अपनी शक्ति के अनुसार आंशिक त्याग करता है, उसे अणुव्रती, श्रावक, अथवा श्रमणोपासक के नाम से जाना जाता है। श्रावकों द्वारा ग्रहण किये जाने वाले बारह व्रतों की संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है
1. पहले अहिंसा व्रत में श्रावक जी किसी भी त्रस जीव की हिंसा करें नहीं, करावें नहीं, मन, बचन और काया से। श्रावक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा से पूर्णरूप से बच नहीं सकता, पर अनावश्यक हिंसा को नियन्त्रित कर लेता है। निरपराध त्रस जीवों को जान-बूझकर संकल्पूर्वक मारने का दो करण, तीन योग से त्याग करता है।
2. दूसरे सत्य व्रत में श्रावकजी स्थूल झूठ बोलें नहीं, बोलावें नहीं, मन, वचन और काया से। इस व्रत में श्रावक जी कन्या-वर सम्बन्धी, गाय आदि पशु सम्बन्धी, जमीन सम्बन्धी, धन-दौलत हड़पने सम्बन्धी, झूठी साक्षी देने सम्बन्धी झूठ बोलने का दो करण, तीन योग से त्याग करते हैं।
3. तीसरे अचौर्य व्रत में श्रावक जी स्थूल चोरी करें नहीं, करावें नहीं मन, वचन और काया से। इस व्रत में श्रावक जी किसी के घर, दुकान आदि में घुसकर धन-दौलत बहुमूल्य उपकरण-कागजात आदि चुराने का दो करण, तीन योग से त्याग करते हैं।
4. चौथे ब्रह्मचर्य व्रत में श्रावक जी स्व-स्त्री के साथ कुशील सेवन की मर्यादा करें तथा अन्य सभी के साथ कुशील सेवन का त्याग करें। इस व्रत में श्रावक जी देव-देवी सम्बन्धी दो करण, तीन योग से तथा मनुष्य, तिर्यच सम्बन्धी कम से कम एक करण, एक योग से कुशील सेवन का त्याग करते हैं।
5. पाँचवें अपरिग्रह व्रत में श्रावक जी परिग्रह की मर्यादा कर बाकी का त्याग करें। इस व्रत में श्रावक जी खेत, जमीन, जायदाद, सोना, चाँदी, धन-नोट, सिक्के आदि, धान्य-अनाज, द्विपद-दास, नौकर, पक्षी आदि, चतुष्पद-गाय, भैंस आदि जानवर, कुविय-पीतल, लोहा आदि, नौ प्रकार के बाह्य परिग्रह की मर्यादा करके बाकी का त्याग करें।
6. छटे दिशा परिमाण व्रत में श्रावक जी छहों दिशाओं की मर्यादा करें। इस व्रत में श्रावकजी पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, उँची, नीची इन छह दिशाओं एवं विदिशाओं में गमनागमन की मर्यादा करें।
7. सातवें उपभोग परिभोग-परिमाण व्रत में श्रावक जी उपभोग-परिभोग सम्बन्धी छब्बीस बोलों की मर्यादा करें, एक करण, तीन योग से तथा पन्द्रह कर्मादानों का त्याग करें। उपभोग अर्थात् एक बार भोग के काम आने वाली खाने-पीने आदि की वस्तुएँ और परिभोग अर्थात् बार-बार भोग के काम आने वाली जैसे- पहनने, ओढ़ने आदि की वस्तुएँ।
8. आठवें अनर्थदंड विरमण व्रत में श्रावक जी अनर्थदण्ड का सेवन करें नहीं, करावें नहीं, मन-वचन और काया से। इस व्रत में श्रावक जी बिना प्रयोजन होने वाली हिंसा का दो करण तीन योग से त्याग करते हैं।
9. नवमें सामायिक व्रत में श्रावक जी प्रतिदिन नियमपूर्वक सामायिक करें। इस व्रत में श्रावक जी प्रतिदिन मन, वचन, काया एवं द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन सात प्रकार की शुद्धिपूर्वक सामायिक व्रत की दो करण तीन योग से आराधना-साधना करते हैं।
10. दसवें देशावगासिक व्रत में श्रावक जी प्रतिदिन दिशाओं की मर्यादा कर उसके उपरान्त बाहर जाने तथा पाँच आश्रव सेवन करने का त्याग करें। इस व्रत में श्रावक जी चौदह नियम, संवर आदि की आराधना करते हैं।
11. ग्यारहवें व्रत में श्रावक जी प्रतिपूर्ण पौषध करें। पौषध का अर्थ-तप संयम के गुणों से आत्मा को पुष्ट करना। पोषध व्रत में अशन-पान-खादिम-स्वादिमरूप चारों प्रकार के आहार का त्याग, कुशील सेवन का त्याग, सोना-चांदी, जेवरात आदि धन तथा धान्य का त्याग, हिंसाकारी शस्त्र आदि का त्याग करके ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना की जाती है। कम से कम सात प्रहर के लिए की जाने वाली दया भी इसी व्रत के अन्तर्गत मानी जाती है।
12. बारहवें अतिथि संविभाग व्रत में श्रावक जी साधु-साध्वी को निर्दोष वस्तु का दान देखें। इस व्रत में श्रावक जी अपने घर पधारे हुए साधु एवं साध्वियों को अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, चौकी, पट्टा, शव्या, तृण-संस्तारक, औषध, भेषज इन चौदह प्रकार की निर्दोष अचित्त वस्तु से प्रतिलाभित कर उनके निर्मल ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना में सहायक बनते हैं। प्रत्येक श्रावक को निर्दोण वस्तु साधु-साध्वियों को देने की भावना भानी (रखानी) चाहिए। उपर्युक्त चौदह प्रकार की वस्तुओं में प्रारंभ की आठ वस्तुएँ अप्रतिहारी अर्थात् वापस नहीं लौटाने योग्य कहलाती हैं तथा अन्तिम छह वस्तुएँ प्रतिहारी अर्थात् वापस लौटाने योग्य कहलाती हैं।
इन बारह व्रतों में प्रथम पाँच अणुव्रत हैं, उसके बाद तीन गुणव्रत और शेष चार शिक्षाव्रत हैं।
इस प्रकार जो साधक इन बारह व्रतों को सही रूप में समझकर, इनका पालन करता है वही सच्चा श्रावक कहलाने का अधिकारी है।