पच्चीस बोल-पाँचवें बोले पर्याप्ति छः

पर्याप्ति - पर्याप्तिः नाम शक्तिः । अर्थात्- परिणमन करने की शक्ति को 'पर्याप्ति' कहते हैं। वह शक्ति विशेष की पूर्णता जिससे जीव पुद्गल को ग्रहण करके उन्हें आहार, शरीर, इन्द्रियादि रूपों में परिणत करता है, उसे 'पर्याप्ति' कहते हैं।

पच्चीस बोल-पाँचवें बोले पर्याप्ति छः

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पच्चीस बोल - पाँचवें बोले पर्याप्ति छः

पाँचवें बोले पर्याप्ति छः - 1. आहार पर्याप्ति, 2. शरीर पर्याप्ति, 3. ईन्द्रिय पर्याप्ति, 4. श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, 5. भाषा पर्याप्ति और 6. मन पर्याप्ति।
• आधार-भगवती सूत्र श.3 3.1, प्रज्ञापना-28 वाँ पद।

पर्याप्ति - पर्याप्तिः नाम शक्तिः । अर्थात्- परिणमन करने की शक्ति को 'पर्याप्ति' कहते हैं। वह शक्ति विशेष की पूर्णता जिससे जीव पुद्गल को ग्रहण करके उन्हें आहार, शरीर, इन्द्रियादि रूपों में परिणत करता है, उसे 'पर्याप्ति' कहते हैं। पर्याप्ति के छ: भेद इस प्रकार हैं

1. आहार पर्याप्ति - आहार के पुदगलों को ग्रहण करके खल व रस के रूप में परिणत करने की जीव की शक्ति विशेष को 'आहार पर्याप्ति' कहते हैं। खल का अर्थ है - सार रहित भाग और रस का अर्थ है - सार भाग।
2. शरीर पर्याप्ति - रस रूप में परिणत पुद्गलों को धातु रूप में परिणत करने की जीव की शक्ति विशेष को 'शरीर पर्याप्ति' कहते हैं। जैसे औदारिक शरीर में सप्त धातुएँ- रस, रक्त, मांस, मेद, हड्डी, मज्जा और वीर्य। इसी प्रकार वैक्रिय व आहारक शरीर में उन-उनके योग्य धातु रूप में परिणमन करने की शक्ति समझना चाहिए।
3. इन्द्रिय पर्याप्ति - शरीर पर्याप्ति द्वारा परिणत सप्त धातुओं से कान, आँख, नासिका आदि इन्द्रियों का निर्माण करने एवं उस रूप में परिणत करने की जीव की शक्ति विशेष को इन्द्रिय पर्याप्ति' कहते हैं।
4. श्वासोच्छवास पर्याप्ति - जीव, श्वासोच्छ्वास योग्य सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण कर श्वास एवं उच्छ्वासरूप में परिणत करे, उस शक्ति विशेष को 'श्वासोच्छवास पर्याप्ति' कहते हैं।
5. भाषा पर्याप्ति - जीव, भाषा योग्य सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण कर बोलने की योग्यता प्राप्त करे, वचनरूप में परिणत करे अर्थात् - बोलने की शक्ति विशेष को भाषा पर्याप्ति' कहते हैं।
6. मन पर्याप्ति - मनोवर्गणा के पुदगलों को ग्रहण करके चिन्तन-मननरूप में परिणत करने की जीव की शक्ति विशेष को 'मन पर्याप्ति' कहते हैं।

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