पच्चीस बोल-पन्द्रहवें बोले आत्मा आठ

आत्मा - जो ज्ञान, दर्शन आदि पर्यायों में निरन्तर रमण करे, गमन करे उसे 'आत्मा' कहते हैं। असंख्यात आत्म-प्रदेशों का ऐसा समूह जिसमें चेतना का गुण सदैव विद्यमान रहता है, उसे 'आत्मा' कहते हैं।

पच्चीस बोल-पन्द्रहवें बोले आत्मा आठ

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पच्चीस बोल - पन्द्रहवें बोले आत्मा आठ

पन्द्रहवें बोले आत्मा आठ

1. द्रव्य आत्मा, 2. कषाय आत्मा, 3. योग आत्मा, 4. उपयोग आत्मा, 5. ज्ञान आत्मा, 6. दर्शन आत्मा, 7. चारित्र आत्मा और 8. वीर्य आत्मा।

• आधार- भगवती श.12 उद्देशक 10.

आत्मा - जो ज्ञान, दर्शन आदि पर्यायों में निरन्तर रमण करे, गमन करे उसे 'आत्मा' कहते हैं। असंख्यात आत्म-प्रदेशों का ऐसा समूह जिसमें चेतना का गुण सदैव विद्यमान रहता है, उसे 'आत्मा' कहते हैं।

आत्मा के आठ भेद इस प्रकार है

१. द्रव्य आत्मा - असंख्यात प्रदेशों का ऐसा अखण्ड और अमूर्त स्वरूप जो ज्ञान-दर्शन के गुणों से युक्त है, शाश्वत है, उसे 'द्रव्य आत्मा' कहते हैं। संसारी एवं सिद्ध सभी में यह आत्मा पायी जाती है। आत्मा का एक भी प्रदेश आत्मा से कभी अलग नहीं होता है।

२. कषाय आत्मा - क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों की तीव्रता के आधार पर आत्मा को कषाय आत्मा' कहा जाता है। जब तक कषायों का उदय रहता है, तब तक यह आत्मा रहती है। यह आत्मा दसवें गुणस्थान तक के जीवों में पायी जाती है।

३. योग आत्मा - जब आत्मा के साथ मन, वचन और काय की प्रवृत्ति विद्यमान रहती है तब योगों की प्रमुखाता के आधार पर उसे 'योग आत्मा' कहते हैं। यह आत्मा तेरहवें गुणस्थान तक के जीवों में पायी जाती है।

४. उपयोग आत्मा - जब आत्मा में जानने और देखने की प्रवृत्ति विशेषरूप से होती है, तब उस आत्मा को 'उपयोग आत्मा' कहा जाता है। यह आत्मा सिद्ध व संसारी सभी जीवों में पाई जाती है।

५. ज्ञान आत्मा - जब आत्मा में नवतत्त्व और षद्रव्य का, देव-गुरु-धर्म और आत्म-स्वरूप का यथार्थ ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, तब उसे 'ज्ञान आत्मा' कहते हैं अर्थात् समकित के साथ होने वाले पदार्थों की जानकारी ज्ञान आत्मा का लक्षण है। यह आत्मा सम्यग् दृष्टि जीवों में ही पायी जाती है, मिथ्यात्वी में नहीं।

६. दर्शन आत्मा - जब आत्मा शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि अथवा अपनी आत्मा के द्वारा पदार्थों का सामान्य बोध प्राप्त करती है, तब उसे दर्शन आत्मा कहते हैं। यह आत्मा सिद्ध और संसारी जीवों में पायी जाती है। यहाँ दर्शन से तात्पर्य श्रद्धा गुण से न होकर दर्शनावरणीय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले सामान्य अनुभूतिरूप दर्शन से है।

७. चारित्र आत्मा - जब आत्मा में त्याग-प्रत्याख्यानरूप विरति भाव तीन-करण, तीन-योग से जीवन पर्वत के लिए प्रकट हो जाते हैं, तब उसे 'चारित्र आत्मा' कहते हैं। यह आत्मा छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक पायी जाती है।

८. वीर्य आत्मा - जब आत्मा में दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य, इन पाँच शक्तियों को प्रकट करने में पुरुषार्थ होता है, तब उसे 'वीर्य आत्मा कहते हैं। यह आत्मा सभी संसारी जीवों में पायी जाती है सिद्धों में नहीं।

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