पच्चीस बोल-नौवें बोले उपयोग बारह

जीव की ज्ञान एवं दर्शनात्मक चेतनाशक्ति की प्रवृत्ति को उपयोग' कहते हैं। अर्थात् जीव जिस चेतना शक्ति के द्वारा वस्तु के सामान्य एवं विशेष रूप का ज्ञान करता है, उस ज्ञान करने की क्रिया को 'उपयोग' कहते हैं।

पच्चीस बोल-नौवें बोले उपयोग बारह

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पच्चीस बोल - नौवें बोले उपयोग बारह

नौवें बोले उपयोग बारह - (पाँच ज्ञान, तीन अज्ञान और चार दर्शन)।
पाँच ज्ञान - 1. मतिज्ञान 2. श्रुतज्ञान, 3. अवधिज्ञान, 4. मनःपर्यवज्ञान ज्ञान और 5. केवलज्ञान।
तीन अज्ञान - 1. मति-अज्ञान, 2. श्रुत-अज्ञान और 3. विभंगज्ञान या अवधि-अज्ञान।
चार दर्शन - 1. चक्षुः दर्शन 2. अचक्षुदर्शन, 3. अवधि-दर्शन और 4, केवलदर्शन।
आधार-पन्नवणा सूत्र, पद 28, सूत्र 312
उपयोग- जीव की ज्ञान एवं दर्शनात्मक चेतनाशक्ति की प्रवृत्ति को उपयोग' कहते हैं। अर्थात् जीव जिस चेतना शक्ति के द्वारा वस्तु के सामान्य एवं विशेष रूप का ज्ञान करता है, उस ज्ञान करने की क्रिया को 'उपयोग' कहते हैं।

ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं
1. मतिज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता से रूपी-अरूपी पदार्थों का सीमित मात्रा में जो विशेष बोध होता है, उसे मति ज्ञान कहते हैं। जाति स्मरण ज्ञान भी इसी में शामिल होता है। इसमें अपने पिछले संज्ञी के नौ सौ (900) जन्मों की बात जानी जा सकती है।
2. श्रुतज्ञान - शब्द सुनकर, पढ़कर, चिन्तन-मनन कर अथवा संकेत से रूपी-अरूपी पदार्थों का सीमित मात्रा में होने वाला शब्दाश्रित ज्ञान, श्रुतज्ञान कहलाता है।

मति व भुतज्ञान में अन्तर- मतिज्ञान में शब्दों का उल्लेख नहीं होता है अर्थात् यह स्वयं के लिए ही लाभदायक होता है। जबकि श्रुतज्ञान में शब्दों का उल्लेख किया जाता है। यह स्व और पर दोनों के लिए लाभकारी होता है। मतिज्ञान से मात्र वर्तमान की जानकारी होती है जबकि श्रुतज्ञान से तीनों काल का बोध होता है। मतिज्ञान में सामान्य रूप से पदार्थों को जाना जाता है जबकि श्रुतज्ञान में मतिज्ञान द्वारा जाने हुए विषयों को अधिक विशिष्टता से जाना जाता है अथवा निर्णायक रूप से जाना जाता है।

3. अवधिज्ञान - इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना साक्षात् आत्मा से होने वाले रूपी पदार्थों के मर्यादित ज्ञान को 'अवधिज्ञान' कहते हैं। यह ज्ञान देवों-नारकों में जन्म से ही तथा संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय व गर्भज मनुष्य में क्षयोपशम विशेष से होता है। अवधिज्ञान से मन की बात भी जानी जा सकती है।

4. मनःपर्यवज्ञान- इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना सीधे आत्मा से संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानना 'मनःपर्यवज्ञान' है।

अवधि और मनःपर्यवज्ञान में अन्तर- यद्यपि अवधि और मनः पर्यवज्ञान ये दोनों सीमित ज्ञान तथा प्रत्यक्षरूप से होने वाले ज्ञान हैं फिर भी दोनों में निम्न अन्तर भी हैं। जैसे
  1. मनः पर्यवज्ञान अवधिज्ञान की अपेक्षा अपने विषय को बहुत गहराई से जानता है, अत: वह अवधिज्ञान से विशुद्धतर है।
  2. अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक प्रमाण है, जबकि मनःपर्यवज्ञान का क्षेत्रमानुषोत्तर पर्वत तक ही है।
  3. अवधिज्ञान के स्वामी चारों गति के जीव हो सकते हैं, जबकि मनः पर्यवज्ञान के स्वामी केवल संयमी मनुष्य ही होते हैं।
  4. अवधिज्ञान का विषय कतिपय पर्याय सहित रूपी द्रव्य है, जबकि मनः पर्यवज्ञान का विषय अवधिज्ञान का अनन्तवा भाग अर्थात् मनोद्रव्य मात्र है।

5. केवलज्ञान - सभी द्रव्यों की सभी पर्यायों को एक साथ सीधे आत्मा से परिपूर्णरूप से प्रत्यक्ष जानना 'केवलज्ञान' है। सभी द्रव्यों की त्रैकालिक (भूत, वर्तमान और भविष्यत्) अवस्थाओं को सीधे आत्मा से बिना किसी सहायता के हस्तामलकवत् अर्थात् हथेली में रहे आँवले के समान अशवा हथेली में रहे निर्मल जल के समान परिपूर्ण जानना केवलज्ञान' है।
6. मति-अज्ञान- सम्यक् दर्शन के अभाव में मन और इन्द्रियों की सहायता से रूपी और अरूपी पदार्थों की सीमितरूप में जो जानकारी होती है, उसे 'मति-अज्ञान कहते हैं।
7. श्रुत-अज्ञान - सम्यक्त्व के अभाव में सुनने, पढ़ने और मनन करे से जीवों को जो अरुपी पदार्थों की सीमितरूप में जो जानकारी होती है, उसे 'श्रुत-अज्ञान' कहते हैं।
8. विभंगज्ञान - सम्यक्त्व के अभाव में आत्मा से होने वाली रूपी पदार्थों की मर्यादित जानकारी को 'विभंग ज्ञान' या अवधि-अज्ञान' कहते हैं।

दर्शनोपयोग के चार प्रकार

9. चक्षुः दर्शन - चक्षुःइन्द्रिय की सहायता से जीवों को मति-श्रुतज्ञान के पूर्व जो सामान्य बोध होता है अथवा अनुभूति होती है, उसे 'चक्षुःदर्शन' कहते हैं।
10. अचक्षुःदर्शन - चक्षुःइन्द्रिय को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों और मन की सहायता से अर्थात् कानों से सुनकर, नाक से सूंघकर, जीभ से चखकर, शरीर से स्पर्श कर और मन से चिन्तन-मनन कर मति-श्रुतज्ञान से पूर्व जो पदार्थो का सामान्य बोध होताहै। वह अचक्षुःदर्शन कहलाता है।
11. अवधिदर्शन - इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना मात्र आत्मा की शक्ति से मर्यादापूर्वक रूपी पदार्थों का अवधिज्ञान या विभंगज्ञान से पूर्व सामान्यरूप से बोध होना अवधिदर्शन कहलाता है।
12. केवलदर्शन - त्रिकालवर्ती सभी द्रव्यों एवं उनकी सभी पर्यायों को सामान्यरूप से जानना 'केवलदर्शन' कहलाता है। मनःपर्यवज्ञान से मन की अवस्थायें (पर्याय) जानी जाती हैं और वे अवस्थायें विशेष ही होती हैं अत: मन:पर्यवदर्शन नहीं होता।

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