पच्चीस बोल - तेरहवें बोले मिथ्यात्व के दस भेद
तेरहवें बोले मिथ्यात्व के दस भेद -
1. जीव को अजीव श्रद्धे तो मिथ्यात्य,
2. अजीव को जीव श्रद्धे तो मिथ्यात्व,
3. धर्म को अधर्म श्रद्धे तो मिथ्यात्य,
4, अधर्म को धर्म श्रद्धे तो मिथ्यात्च,
5. साधु को असाधु श्रद्धे तो मिथ्यात्च,
6, असाधु को साधु श्रद्धे तो मिथ्यात्व,
7. संसार के मार्ग को मोक्ष का मार्ग श्रद्धे तो मिथ्यात्व,
8. मोक्ष के मार्ग को संसार का मार्ग श्रद्धे तो मिथ्यात्व,
9. आठ कर्मो से मुक्त को अमुक्त श्रद्धे तो मिथ्यात्व,
10. आठ कर्मो से अमुक्त को मुक्त श्रद्धे तो मिथ्यात्व।
आधार-ठाणांग 10, सूत्र 734
मिथ्यात्व- वस्तु के अयथार्थ श्रद्धान (पदार्थ जिस रूप में है, उसे उस रूप में नहीं मान कर विपरीत रूप में मानना) मिथ्यात्व है।
१. जीव को अजीव श्रद्धे तो मिथ्यात्व- जिसमें चेतना का गुण हो, उपयोग लक्षण वाला हो, जिसमें जानने, देखने और अनुभव करने की शक्ति हो, उनको जीव नहीं मानकर अजीव मान लेना, हमारी आत्मा को शरीर के समान नाशवान और क्षण-भंगुर समझ लेना. एकेन्दिय आदि सुक्ष्म जीवों को अजीव मान लेना, ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति को जीव के मूल गुण न मानकर पुदगल के गुण मान लेना आदि 'जीव को अजीव श्रद्धने रूप मिथ्यात्व' है। मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं। संयोग, वियोग, जन्म-मरण, सड़न-गलन आदि प्रक्रिया शरीर में होती है, आत्मा में नहीं। आत्मा, अजर-अमर-अविनाशी तत्त्व है। आत्मा और शरीर की भिन्नता का स्पष्ट एवं अनुभूति परक बोध होना भेद विज्ञानं कहलाता है। जब तक आत्मा स्व-पर के भेद-विज्ञान का वस्तुतः अनुभव नहीं कर लेती तब तक मिथ्यात्व समाप्त नहीं होता है।
२. अजीव को जीव श्रद्धे तो मिथ्यात्व- जड़ पदार्थों को जिनमें चेतना, उपयोग आदि गुण नहीं हो, उन्हें जीव मानना अजीव को जीव श्रद्धने रूप मिथ्यात्व है। जैसे शरीर, इन्द्रियाँ, मन एवं अष्टविधा कर्म, ये सभी रुपी हैं, पुदगल रूप हैं, सड़न, गलन, विध्वंसन स्वभाव वाले होने से जड़ हैं। संयोगी होने से इनका वियोग निश्चित है। किन्तु अनादिकाल से जीव के साथ शरीर, इन्द्रियाँ आदि संयोग होने के कारण अज्ञानी जीव इन शरीर आदि को जीवरूप ही मान लेता है। शरीर आदि के विकास एवं विनाश में ही आत्मा का, आत्म-स्वरूप का विकास एवं विनाश समझ लेना भी अजीव को जीव श्रद्धने रूप मिथ्यात्व' कहलाता है।
३. धर्म को अधर्म श्रद्धे तो मिथ्यात्व - धर्म अहिंसा, संयम एवं तपरूप होता है। वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप रत्नत्रय की आराधना करना धर्म है। क्षमा, नम्रता, सरलता, निर्लोभता आदि दस लक्षणों को धारण करना धर्म है। इन सभी को धर्म न मानकर अधर्म मानना मिथ्यात्व है। सद्गति में ले जाने वाले कारणों को दुर्गति के कारण मानना व मोक्ष प्राप्ति में हेतुभूत ज्ञान, दर्शन, चारित्र को संसार बढ़ाने के कारण मानना मिथ्यात्व है। आत्मा के सहज स्वभाव में रमण करना आत्म-धर्म है। समभाव में धर्म न मानकर राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह के सेवन करने में धर्म मानना धर्म को अधर्म श्रद्धने रूप मिथ्यात्व' कहलाता है।
४. अधर्म को धर्म श्रद्धे तो मिथ्यात्व- हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह आदि अठारह पापों का सेवन करना अधर्म है, पाप है, इन्हें धर्मरूप मानकर श्रद्धान करना भी मिथ्यात्व है। रागी, द्वेषी, मानी, मायावी, लोभी एवं कामी पुरुषों द्वारा कहे गये वचनों को उपादेय मानना, धर्म मानना, धर्म के नाम पर यज्ञ, पूजा आदि में होने वाली जीवों की हिंसा को अधर्म न मानकर धर्म रूप मानना, धर्म के नाम पर आडम्बर, प्रदर्शन एवं बड़े-बड़े समारोहों में होने वाले आरम्भ-समारम्भ आदि पापकारी प्रवृत्तियों को भी धर्म मानना, 'अधर्म को धर्म श्रद्धने रूप मिथ्यात्व' कहलाता है।
५. साधु को असाधु श्रद्धे तो मिथ्यात्व - वीतराग धर्म की पूर्ण निर्मल साधना करने वाले साधक को साधु कहते हैं। जो साधुत्व के गुणों अर्थात्- पाँच महाव्रत, पाँच समिति-तीन गुप्ति, पाँच आचार, पाँच इन्द्रिय दमन, नववाड़ सहित ब्रह्मचर्य, बारह प्रकार का तप, सतरह प्रकार का संयम पालन करते हुए आत्मभाव में लीन रहते हैं, वे साधु कहलाते हैं। ऐसे वीतराग धर्म की साधना करने वाले स्व-पर हित साधने वाले साधुओं को असाधु मानना' साधु को असाधु श्रद्धने रूप मिथ्यात्व' कहलाता है।
६. असाधु को साधु श्रद्धे तो मिथ्यात्व - जो वीतराग मार्ग की साधना नहीं करते, त्याग मार्ग की आराधना नहीं करके भोग मार्ग पर लगे हैं, शरीर, इन्द्रियों, मन एवं आत्मा पर जिनका विवेकपूर्ण संयम नहीं है, ऐसे भोगी, रागी, कपटी लोगों को उत्तम, मंगल एवं शरणरूप साधु मानना, 'असाधु को साधु श्रद्धने रूप मिथ्यात्व' है। पाँचों इन्द्रियों के विषयों में, चारों कषायों में लिप्त रहने वाले, प्रमादी जीवन व्यतीत करने वाले असाधुओं को साधु मानना, 'असाधुको साधु श्रद्धने रूप मिथ्यात्व' कहलाता है।
७. संसार के मार्ग को मोक्ष का मार्ग श्रद्धे तो मिथ्यात्व - मिथ्या या असम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना करना, आरम्भ-परिग्रह का सेवन करना, इन्द्रिय-विषयों में आसक्त रहना, क्रोधादि कषायों का सेवन करना संसार का मार्ग है। इन कार्यों को करने से संसार के जन्म-मरणरूप विष-वृक्ष का सिंचन होता है, जिसके परिणामस्वरूप संसार परिभ्रमण बढ़ता ही जाता है। किन्तु अज्ञानवश मूढ प्राणी इन कार्यों को सम्पूर्ण दुःखों से मुक्ति या मोक्ष प्राप्ति का मार्ग समझ लेता है, एवं इनका सेवन करने में व्यस्त रहता है। मूढ़प्राणी की यह मान्यता या दृष्टिकोण ही संसार के मार्ग को मोक्ष का मार्ग श्रद्धने रूप मिथ्यात्व' कहलाता है।
८. मोक्ष के मार्ग को संसार का मार्ग श्रद्धे तो मिथ्यात्व - तत्त्वार्थ सूत्र के प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र में कहा है 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' अर्थात्- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष का मार्ग कहलाता है। (यहाँ तप का समावेश चारित्र में कर लिया जाता है) सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र और सम्यक् तप ये चारों मिलकर भी मोक्ष का मार्ग कहा गया है। ज्ञान द्वारा आत्मा स्व व पर पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को पहचानती है, दर्शन द्वारा उन पर श्रद्धा करती है, चारित्र द्वारा आत्मा नवीन कर्मों के प्रवेश को रोककर स्व में स्थित होती है और तप द्वारा पुराने कर्मों का विनाश कर आत्मा शुद्ध होती है, निर्मल होती है। यही मोक्ष का मार्ग है। इसी मार्ग पर चलकर जीव सभी दुःखों से, कर्मों से मुक्त हो सकता है। ऐसे सच्चे मार्ग को संसार बढ़ाने वाला, भव-भ्रमण करने वाला माने तो 'मोक्ष के मार्ग को संसार का मार्ग श्रद्धने रूप मिथ्यात्व' कहलाता है।
९. आठ कर्मों से मुक्त को अमुक्त श्रद्धे तो मिथ्यात्व - जिन महापुरुषों ने विशिष्ट संवर व निर्जरा द्वारा समस्त कर्मों का अन्त कर दिया है। ज्ञानावरणीय आदि द्रव्य कर्मों से, राग द्वेषादि भाव कर्मों से सदैव के लिए मुक्त होकर केवलज्ञान, केवलदर्शन को प्रकट किये हुए हैं। अपने अनन्त आत्म-स्वरूप में हमेशा स्थिर रहते हैं, जो पूर्णतया स्वाधीन हैं, पर का अवलम्बन लेशमात्र भी नहीं है, जिन्हें कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं है, जो कृत-कृत्य हो चुके हैं। ऐसे अनन्त सिद्ध भगवान को सरागी देवों के समान कर्म सहित समझ लेना, 'मुक्त को अमुक्त श्रद्धने रूप मिथ्यात्व' कहलाता है।
१०. अमुक्त को मुक्त श्रद्धे तो मिथ्यात्व - जो आत्माएँ राग द्वेषादि भाव कर्मों से, ज्ञानावरणीय आदि द्रव्य कर्मों से मुक्त नहीं हैं। जो देवी-देवता, जन्म-मरण के चक्र में उलझे हुए हैं. ऊंच-नीच की, यश-अपयश की कामना जिनके अन्तर में विद्यमान है, जो शरीर, संसार और कर्म से मुक्त नहीं हैं, ऐसे सरागी देवों को सिद्धों के समान मुक्त समझ लेना, आराध्य समझ लेना, 'अमुक्त को मुक्त श्रद्धने रूप मिथ्यात्व' कहलाता है।