पच्चीस बोल-चौदहवें बोले छोटी नवतत्व के 115 भेद

संसार में जितने भी पदार्थ हैं, उनके सारभूत, स्वरूप को अथवा पदार्थ के भाव को तत्व कहते हैं। जिसको जानने से मोक्षरूप महाप्रयोजन की सिद्धि होती हो, वह भी तत्व है। जिसके जानने से पदार्थों का यथार्थ निर्णय होकर विवेक दृष्टि उत्पन्न हो, वह 'तत्व' कहलाता है।

पच्चीस बोल-चौदहवें बोले छोटी नवतत्व के 115 भेद

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पच्चीस बोल - चौदहवें बोले छोटी नवतत्व के 115 भेद

चौदहवें बोले छोटी नवतत्व के 115 भेद

नवतत्वों के नाम -1. जीव तत्व 2. अजीव तत्व 3. पुण्य तत्व, 4. पाप तत्व 5. आश्रव तत्च, 6, संवर तत्व 7. निर्जरा तत्व 8. बंध तत्व और 9. मोक्ष तत्व।

इनके भेद - जीव के 14, अजीव के 14, पुण्य के 9, पाप के 18, आश्रव के 20, संवर के 20, निर्जरा के 12, बन्ध के 4 और मोक्ष के 4 भेद, ये कुल 115 हुए।
• आधार-ठाणांग सूत्र वा स्थान।

तत्व
1. संसार में जितने भी पदार्थ हैं, उनके सारभूत, स्वरूप को अथवा पदार्थ के भाव को तत्व कहते हैं।
2. जिसको जानने से मोक्षरूप महाप्रयोजन की सिद्धि होती हो, वह भी तत्व है।
3. जिसके जानने से पदार्थों का यथार्थ निर्णय होकर विवेक दृष्टि उत्पन्न हो, वह 'तत्व' कहलाता है।
4. जो जीव को संसार से मुक्त कराने एवं निज स्वरूप में प्रतिष्ठित कराने में सहायक हो, वह भी 'तत्व' कहलाता है।

नव तत्त्वों के भेद

१. जीव तत्व - जिसमें जानने, देखने और अनुभव करने की शक्ति हो, जिसमें चेतना गुण हो, उपयोग लक्षण हो, जो सुख-दुःख का, पाप-पुण्य का स्वयं कर्ता एवं भोक्ता हो, ऐसे असंख्यात प्रदेशी, अरुपी, शाश्वत अखण्ड तत्व को जीव तत्व कहते हैं। जीव के मुख्यतः दो भेद - सिद्ध एवं संसारी।
संसारी जीवों के चौदह भेद इस प्रकार हैं (1) सूक्ष्म एके. का अपर्याप्त। (2) सूक्ष्म एके. का पर्याप्त। (3) बादर एके. का अपर्याप्त। (4) बादर एके. का पर्याप्त। (5) बेइन्द्रिय का अपर्याप्त। (6) बेइन्द्रिय का पर्याप्त। (7) तेइन्द्रिय का अपर्याप्त। (8) तेइन्द्रिय का पर्याप्त। (9) चउरिन्द्रिय का अपर्याप्त। (10) चउरिन्द्रिय का पर्याप्त। (11) असंज्ञी पंचे. का अपर्याप्त। (12) असंज्ञी पंचे. का पर्याप्त। (13) संज्ञी पंचे. का अपर्याप्त। (14) संज्ञी पंचे. का पर्याप्त ।
इन चौदह भेदों में चारों गति के जीव सम्मिलित हो जाते हैं। 'जीव' ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति इन चार भाव प्राणों से त्रिकाल जीवित रहता है।
• आधार-समवायांग-14, भगवती शतक 25 उद्दे

२. अजीव तत्व - अचेतन तत्व - जो चेतना गुण से रहित हो, सड़न, गलन, विध्वंसन स्वभाव वाला हो, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श से युक्त हो अथवा इन वर्णादि से रहित होकर भी उपयोग लक्षण से हीन हो, जिसमें जड़त्व भाव हो ऐसे पदार्थों को 'अजीव तत्त्व' कहते हैं। इनमें संवेदन, सहनशीलता और समता जैसे गुणों का अभाव होता है। ये ज्ञान, दर्शन और अनुभव शक्ति से रहित होते हैं।
अजीव तत्व के मूलतः 2 भेद हैं - रूपी अजीव और अरूपी अजीव। जिसमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान पाये जाते हैं, उन्हें रूपी अजीव कहते हैं और जिनमें ये नहीं पाये जाते, उन अजीव पदार्थों को अरूपी अजीव कहते हैं। अरूपी अजीव के 10 भेद होते हैं

धर्मास्तिकाय के तीन भेद - स्कंध, देश, प्रदेश। अधर्मास्तिकाय के तीन भेद-स्कन्ध, देश, प्रदेश। आकाशास्तिकाय के तीन भेद-स्कन्ध, देश, प्रदेश और दसवाँ कालद्रव्य।
रूपी पुदगल (अजीव) के चार भेद होते हैं - स्कंध, देश, प्रदेश और परमाणु। इस प्रकार अजीव तत्त्व के चौदह भेद होते हैं। अरूपी अजीव के 10 भेद स्वभाव में ही परिणमन करते रहते हैं। इनका सीधा सम्बन्ध भी आत्मा से नहीं है। रूपी पुदगल लोक में अनन्त हैं, वे स्वभाव व विभाव दोनों रूप में परिणमन करते रहते हैं।

संसारी जीव सशरीरी होने से इस अजीव तत्व में से इन्द्रियों के माध्यम से पुद्गल के भोग को अपना भोग मानता है और सुख की प्रतीति करता है, किन्तु इन पुद्गलों में सुख नाम का गुण ही नहीं है। सुख तो आत्मा का गुण है। अतः जीव और अजीव तत्त्व का वास्तविक स्वरूप समझकर ही श्रद्धान करना चाहिए। रागादि विकारी भावों का त्याग कर शुद्ध एवं शुभ भावों में रमण करना चाहिए।

३. पुण्य तत्व - जो आत्मा को पवित्र करे अर्थात् अशुभ से बचाये, शुभ में लगाये। जिसको बांधना दुर्लभ किन्तु भोगना सुलभ हो, जिसका फल मीठा अर्थात् अनुकूल प्रतीत होता हो उसे 'पुण्य तत्व' कहते हैं। यह तत्व धर्म की साधना और आराधना में सहायक बनता है। पुण्य के प्रभाव से शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि विकास को प्राप्त होते हैं और यदि जीव चाहे तो इनका धर्म-कार्य में सदुपयोग करके अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। पुण्य तत्व साधना में कहीं भी बाधक नहीं है। पुण्य का भोग करना बाधक है क्योकि पाप का बंध होता है। ज्यों-ज्यों जीव गुणस्थानों में ऊपर चढ़ता है त्यों-त्यों पुण्य के अनुभाग में भी वृद्धि होती जाती है। केवलज्ञान प्राप्ति के समय पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग होता है इसीलिए यह कहा जा सकता है कि पुण्य तत्व हेय न होकर धर्म में सहायक होने से उपादेय है। पुण्य का बंध ९ प्रकार से होता है-
1. अन्न पुण्य - अन्न देने से पुण्य होता है।
2. पान पुण्य - पानी पिलाने से पुण्य होता है।
3. लयन पुण्य - जगह, स्थान देने से पुण्य होता है।
4. शयन पुण्य - शय्या, पाट, पाटला, बाजोट आदि देने से पुण्य होता है।
5. वस्त्र पुण्य - वस्त्र देने से पुण्य होता है।
6. मन पुण्य - शुभमन रखने से, दान-शील-तपरूप शुभ भावना रखाने से पुण्य होता है।
7. वचन पुण्य - मुख से शुभ वचन बोलने से पुण्य होता है।
8. काय पुण्य - काय द्वारा दया, सेवा, विनय, वैयावृत्त्य करने से पुण्य होता है।
9. नमस्कार पुण्य - गुणवान् को नमस्कार करने से पुण्य होता है।
• आधार-ठाणांगसूत्र 676

४. पाप तत्व - जो आत्मा को नीचे गिराये, नरक आदि दुर्गतियों में ले जाये, आत्मा को मलिन करे, कर्मों के बोझ से भारी बनाये उसे 'पाप तत्व' कहते हैं। इस तत्व को बाँधना सुखरूप तथा उपभोग या उदय दुःखरूप होता है। यह तत्व इस भव तथा परभव दोनों में दुःखद होने से जन्म-मरण रूपी विष-वृक्ष को निरन्तर बढ़ाते रहने से एकान्त हेय माना गया है।
पाप का बंध अठारह प्रकार से होता है-
1. प्राणातिपात-जीवों की हिंसा करने से।
2. मृषावाद-असत्य-झूठ बोलने से।
3. अदत्तादान- चोरी करने से।
4. मैथुन-कुशील सेवन करने से।
5. परिग्रह-धन, संग्रह की लालसा रखाने से।
6. क्रोध-रोष, गुस्सा करने से।
7. मान-अहंकार करने से।
8. माया-छल-कपट करने से।
9. लोभ-लालच-तृष्णा बढ़ाने से।
10. राग-प्रिय (मनोज्ञ) वस्तु पर स्नेह रखने से।
11. द्वेष-अमनोज्ञ वस्तु पर द्वेष करने से।
12. कलह-क्लेश करने से।
13. अभ्याख्यान-झूठा कलंक लगाने से।
14. पैशुन्य-चुगली करने से।
15. परपरिवाद-दूसरे की निन्दा करने से।
16. रति-अरति- मनोज्ञ वस्तुओं पर प्रसन्न और अमनोज्ञ वस्तुओं पर नाराज होने से।
17. माया-मृषावाद-छल-कपट के साथ झूठ बोलने से।
18. मिथ्यादर्शन शल्य-कुदेव, कुगुरू और कुधर्म पर श्रद्धा रखने से।
• आधार-भगवती सूत्र शतक 1 उद्दे 9

अठारह भेदों में मिथ्या-दर्शन शल्य नामक अन्तिम पाप मुख्य एवं सब पापों की जड़ है। प्रायः जीव हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापों का त्याग तो कर देता है परन्तु अन्तर में रहे अपने स्वरूप के प्रति अज्ञान एवं अश्रद्धानरूप मिथ्यादर्शन शल्य को नहीं निकाल पाता। इस कारण भव-भ्रमण रूक नहीं पाता है। अतः पाप बन्धन के मूल कारण को सम्यक् रूप से समझकर उसका त्याग करना आवश्यक है।

५. आस्रव तत्व - जिन कारणों से आत्मा पर कर्म पुद्गलों का आगमन होता है, उन कारणों को आस्रव तत्व कहते हैं। जीवरूप तालाब में शुभ-अशुभ रूप जल, राग-द्वेष आदि आस्रव द्वार रूप नाली से आता रहता है। आस्रव से आत्मा मलिन बनता है, क्योंकि आस्रव से कर्मों का निरन्तर आगमन होता रहता है।
आस्रव के 20 भेद इस प्रकार हैं-
1. मिथ्यात्व - मिथ्यात्व का सेवन करें तो आस्रव।
2. अव्रत - व्रत पच्चक्खाण नहीं करे तो आस्रव।
3. प्रमाद - पाँच प्रकार का प्रमाद सेवे तो आस्रव।
4. कषाय - क्रोध, मान, माया और लोभ का सेवन करे तो आस्रव।
5. अशुभ योग - मन, वचन और काय द्वारा अशुभ प्रवृत्तियाँ करे तो आस्रव।
6. प्राणातिपात- जीव हिंसा करे तो आस्रव।
7. मृणावाद - झूठ बोले तो आस्रव।
8. अदत्तादान-चोरी करे तो आस्रव।
9. मैथुन-कुशील सेवन करे तो आस्रव।
10. परिग्रह-धन-संग्रह की लालसा रखो तो आस्रव।
11. श्रोत्रेन्द्रिय को वश में नहीं रखो तो आस्रव।
12. चक्षुरिन्द्रिय को वश में नहीं रखो तो आस्रव।
13. घाणेन्द्रिय को वश में नहीं रखे तो आस्रव।
14. रसनेन्द्रिय को वश में नहीं रखे तो आस्रव।
15. स्पर्शनेन्द्रिय को वश में नहीं रखो तो आस्रव।
16. मन को वश में नहीं रखो तो आस्रव।
17. वचन को वश में नहीं रखो तो आस्रव।
18. काया को वश में नहीं रखे तो आस्रव।
19. भंड उपकरण अयतना से लेवे और अयतना से रखे तो आस्रव।
20. सुई कुशाग्र मात्र कोई भी वस्तु अयतना से लेवे और अयतना से रखो तो आस्रव।
• आधार- ठाणांग सूत्र 5वाँ एवं 10 वां स्थान।
पाँच इन्द्रियों के भोगविलास में लगे रहना, उन पर अंकुश नहीं रखना, हिंसा, असत्य आदि करना, मन, वचन और काया को वश में नहीं रखाना, ये सब आस्रव के कारण हैं।

६. संवर तत्व - जिन कारणों से आत्मा पर आने वाले कर्म-पुद्गलों को रोका जा सके, उन्हें 'संवर तत्व' कहते हैं। जीवरूपी तालाब में आस्रव रूपी नालों के द्वारा आता हुआ कर्मरूपी पानी संवररूपी पाटिया से रूकता है। अपने शरीर, इन्द्रियाँ, मन, वस्त्र, पात्र भण्डोपकरण आदि पर संयम रखाना, समिति और गुप्ति में उपयोगवान् रहना 'संवर तत्व' कहलाता है। यह तत्व आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वाधिक उपयोगी है, क्योंकि जब तक कर्मों का संवर नहीं होगा तब तक जीव आगे के गुणस्थानों को प्राप्त नहीं कर सकेगा। यह तत्व सम्यक्त्वपूर्वक व्रत ग्रहण करने पर ही प्राप्त होता है। यदि जीवन में कर्मों का बंध होता जाये, बंधे कर्मों की निर्जरा होती जाये और संवर नहीं हो तो जीव की तीन काल में मुक्ति नहीं हो सकती। इस अपेक्षा से संवर तत्व को सबसे प्रमुख माना जाता है। संवर से आत्मा शुद्ध एवं निर्मल बनती है। संवर की साधना में कर्ममल आत्मा में नहीं आ पाता। संवर मोक्ष का कारण है।

संवर के 20 भेद इस प्रकार से हैं
1. सम्यक्त्व-मिथ्यात्व का त्याग करे तो संवर।
2. विरति-अविरति का त्याग करे तो संवर।
3. अप्रमाद-प्रमाद का त्याग करे तोसंवर।
4. अकषाय-कषाय का त्याग करे तो संवर।
5. शुभयोग-अशुभयोगों का त्याग करे तो संवर।
6. अप्राणातिपात-जीव की हिंसा का त्याग करे तो संवर।
7. अमृषावाद-झूठ बोलने का त्याग करे तो संवर।
8. अअदत्तादान-चोरी का त्याग करे तो संवर।
9. अमैथुन-कुशील का त्याग करे तो संवर।
10. अपरिग्रह- ममत्व (लालसा)का त्याग करे तो संवर।
11. श्रोतेन्द्रिय वश में करे तो संवर।
12. चक्षुरिन्द्रिय वश में करे तो संवर।
13. घ्राणेन्द्रिय वश में करे तो संवर।
14. रसनेन्द्रिय वश में करे तो संवर।
15. स्पर्शनेन्द्रिय वश में करे तो संवर।
16. मन वश में करे तो संवर।
17. वचन वश में करे तो संवर।
18. काया वश में करे तो संवर।
19. भंड उपकरण यतना से लेवे और यतना से रखे तो संवर।
20. सूई कुशाग्र मात्र यतना से लेवे और यतना से रखो तो संवर।
आधार-ठाणांग सूत्र 5वां एवं 10वां स्थान, प्रश्न-व्याकरण, समवायांग 5

संवर तत्व की यह उपादेयता है कि इसके स्वरूप को भलीभाँति हृदयंगम कर आचरण में लिया जाय। पाँच समिति, तीन गुप्ति, दस उत्तम धर्म, बारह भावना, बाईस परीषह विजय आदि संवर की आराधना के प्रमुख साधन बतलाये गये हैं।

७. निर्जरा तत्व - जिन क्रियाओं से आत्मा के साथ बंधे हुए कर्म-पुद्गलों को अंशतः अलग या क्षीण किया जाता हैं, उन्हें 'निर्जरा तत्त्व' कहते हैं। निर्जरा आत्मा को अपने शुद्ध स्वरूप में लाने की आध्यात्मिक क्रिया है, जिससे आत्मा के चारों ओर विद्यमान कर्मों को तपादि द्वारा अलग कर दिया जाता है। कर्मों को अलग हटाने का प्रमुख उपाय तप है। तप से आत्मा निर्मल बनकर सिद्धि को प्राप्त कर लेती है। निर्जरा का प्रमुख कारण तप होने से तप के भेदों को ही निर्जरा के भेद कहे गये हैं। निर्जरा दो प्रकार की होती है
1. सकाम निर्जरा - सम्यक्त्व के सदभाव में जो व्रत-नियम, त्याग, तप आदि किया जाता है, उनसे होने वाली कर्मों की निर्जरा को 'सकाम निर्जरा' कहते हैं। यह निर्जरा ही मुक्ति को प्राप्त कराने में सहायक बनती है।
2. अकाम निर्जरा - मिथ्यात्व और अज्ञान के सद्भाव में होने वाली कर्मों की निर्जरा को 'अकाम निर्जरा' कहते हैं। यह निर्जरा पराधीनतापूर्वक या अज्ञानपूर्वक तप करने से होती है। दूसरी अपेक्षा से प्रत्येक जीव
के बंधे हुए कर्म उदय में आकर आत्मा से अलग होते रहते हैं, उसे भी अकाम निर्जरा' कहते हैं।
तप के मूलतः दो भेद हैं
1. बाह्य तप- शरीर तथा इन्द्रियों के निग्रह और नियन्त्रण के लिए की जाने वाली क्रियाएँ जिनका प्रभाव शरीरादि पर बाहर दिखाई दे तथा जो कर्मक्षय एवं आत्म विकास का कारण भी हो, उसे 'बाह्य तप' कहते हैं। इसके छ: भेद निम्न हैं
(1) अनशन-चार प्रकार के या तीन प्रकार के आहार का त्याग करना।
(2) ऊनोदरी-भोजन की अधिक रुचि होने पर भी कम भोजन करना।
(3) भिक्षाचर्या-शुद्ध आहार आदि की गवेषणा करना।
(4) रसपरित्याग-विगयादि का त्याग करना,स्वाद पर विजय करना।
(5) कायक्लेश-वीरासन आदि कष्टप्रद क्रिया करना।
(6) प्रतिसलीनता- इन्द्रियों को वश में करना तथा कषाय और योगों को रोकना।
2. आभ्यन्तर तप - चित्त निरोध की प्रधानता द्वारा कर्मक्षय एवं आत्मगुणों का विकास करने वाली क्रियाएँ 'आभ्यन्तर तप' हैं। इसमें चित्त विशुद्धि प्रमुखा है। इसके छः भेद निम्न हैं
(1) प्रायश्चित्त- लगे हुए दोषों की आलोचना करके आत्मा को शुद्ध करना।(7)
(2) विनय- गुरु आदि की भक्तियुक्त अभ्युत्थानादि से आदर-सत्कार एवं विनय करना।(8)
(3) वैयावृत्त्य-आचार्यादि की सेवा करना।(9)
(4) स्वाध्याय-शास्त्र की वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकशा करना।(10)
(5) ध्यान-मन को एकाग्र करके शुभ विचारों में लगाना।(11)
(6) व्युत्सर्ग-काय की ममता एवं काय के व्यापार का त्याग करना।(12)

शरीर के प्रति लेश मात्र भी आसक्ति न रहे, ऐसा तप करना। इस प्रकार तप के कुल बारह उत्तर भेद होते हैं।
आधार-भगवती श. 25 उहे. 7, उत्तरा. अ. 30

८. बन्ध तत्व - कर्म-पुदगलों का आत्मा के साथ दूध-पानी की तरह अथवा लोहपिण्ड-अग्नि की तरह सम्बद्ध होना, 'बंध तत्व' है।

कषाय और योग से आत्म-प्रदेशों में जब कंपन होता है, तब आत्मा के साथ कर्म का बंधा होता है। जैसे कोई व्यक्ति शरीर पर तेल लगाकर धूल में लेटता है तो धूल उसके शरीर से चिपक जाती है। कर्म-बंध के मुख्य दो कारण राग व द्वेष हैं।

बंध तत्त्व के चार भेद इस प्रकार हैं
1. प्रकृति बन्ध- आत्मा पर बंधने वाले कर्म-पुद्गल आत्मा के जिस गुण को प्रभावित करते हैं, ढकते हैं, उसे उन कर्म-पुदगलों का प्रकृति बंध कहते हैं। जैसे ज्ञान गुण को प्रभावित करने वाले कर्म-पुदगलों का बन्ध होना उनका प्रकृति बन्ध' है।
2. स्थिति बन्ध - बंधने वाले कर्म-पुद्गल जितने समय तक आत्मा के साथ सम्बद्ध रहते हैं, उस समयावधि को स्थिति बन्ध' कहते हैं।
3. अनुभाग बन्ध - बंधे हुए कर्म-पुद्गलों के फल अथवा रस में कड़वे या मीठेपन की तीव्रता-मन्दता को 'अनुभाग बंध' कहते हैं।
4. प्रदेश बन्ध - जितने कार्मण-पुदगल आकर आत्मा पर चिपकते हैं, उनकी संख्या को 'प्रदेश बंध' कहते हैं। जब कभी कर्मों का बंध होता है तो अनन्तानन्त कर्म-पुद्गल आत्मा पर आकर चिपक जाते हैं।
• आधार- ठाणांग 4 सूत्र 296
इनमें प्रकृति और प्रदेश बन्ध का कारण योग तथा स्थिति और अनुभाग बन्ध का कारण कषाय है।

९. मोक्ष तत्व - सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाना मोक्ष तत्व है। आस्रव को संवर के द्वारा रोक देना और निर्जरा के द्वारा संचित कर्मों का जड़मूल से क्षय कर देना 'मोक्ष तत्व' कहलाता है। मोहनीय कर्म का सम्पूर्णतः क्षय हो जाने पर मोक्ष अवश्य प्राप्त होता है। शरीर, कषाय और कर्म इन तीनों से मुक्त होकर शाश्वत सिद्धि को प्राप्त करना 'मोक्ष' है।
मोक्ष प्राप्ति के चार उपाय इस प्रकार हैं
1. सम्यक ज्ञान - जिन पदार्थों का जैसा स्वरूप है, वैसा ही जानना या मोक्ष व मोक्ष के उपायों को सम्यक् रूप से जानना 'सम्यग्ज्ञान' है।
2. सम्यक् दर्शन - जिनेश्वर भगवान के वचनों पर शुद्ध श्रद्धा रखना सम्यग्दर्शन है।
3. सम्यक चारित्र - दर्शन और ज्ञानपूर्वक महाव्रतादि का आचरण करने को सम्यक चारित्र कहते हैं। 4. सम्यक तप - पूर्वबद्ध कर्मों को सम्यक् प्रकार से क्षीण एवं आत्मा से अलग करना सम्यक तप है।
आधार-उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन 28
ये चारों मिलकर जब परिपूर्णरूप में आत्मा में प्रकट हो जाते हैं, उस समय जीव की प्राप्त होने वाली अवस्था को मोक्ष तत्व कहते हैं।

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