पच्चीस बोल-उन्नीसवें बोले ध्यान चार

ध्यान - मन, वचन और काय को किसी एक विषय पर एकाग्र करना अथवा केन्द्रित करना 'ध्यान' कहलाता है। किसी भी कार्य में जब स्थिर अध्यवसाय हो जाते हैं तो उसे भी 'ध्यान' कहते हैं। अन्तर्मुहूर्त के लिए एक विषय के बारे में एकाग्र होकर चिंता निरोध करना 'ध्यान' कहलाता है।

पच्चीस बोल-उन्नीसवें बोले ध्यान चार

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पच्चीस बोल - उन्नीसवें बोले ध्यान चार

उन्नीसवें बोले ध्यान चार - 1. आर्तध्यान, 2. रौद्रध्यान, 3. धर्म ध्यान और 4. शुक्ल ध्यान।
• आधार- भगवती शतक 25 उद्देशक 7, ठाणांग 4 सूत्र 247, समवायांग 4, ठा. 5 सूत्र, 441

ध्यान - मन, वचन और काय को किसी एक विषय पर एकाग्र करना अथवा केन्द्रित करना 'ध्यान' कहलाता है। किसी भी कार्य में जब स्थिर अध्यवसाय हो जाते हैं तो उसे भी 'ध्यान' कहते हैं। अन्तर्मुहूर्त के लिए एक विषय के बारे में एकाग्र होकर चिंता निरोध करना 'ध्यान' कहलाता है।

'ध्यान' के चार भेद-

1. आर्त्तध्यान - आर्त का अर्थ है- पीड़ा अथवा वेदना। अनुकलता में कमी होने पर तथा प्रतिकूलता आने पर संसारी जीवों को प्रायः पीड़ा अनुभव होती है। उस समय अपने मन, वचन व शरीर को एकाग्र करके पीड़ा के कारणों पर विचार करते रहना 'आर्त्तध्यान' है। जो वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, व्यक्ति के अनुकूल लगती है. उसे इष्ट कहा गया है। इष्ट हमेशा हमारे पास सुरक्षित रहे, अनिष्ट सदा हमसे दूर रहे, इसके लिए योजनाएँ और कार्यक्रम बनाने में तल्लीन रहना आर्त्तध्यान है।

2. रौद्रध्यान - रौद्र का अर्थ है - रूद्रभाव, क्रूरता के भाव, हिंसा के भाव। हिंसादि, दुष्ट आचरण का चिंतन करना, रौद्रध्यान कहलाता है। हिंसादि विषयों का क्रूर परिणाम रौद्रध्यान कहलाता है अर्थात् प्राणियों को मारने-पीटने एवं दुःखी करने का चिन्तन करना, असत्य वचन बोलकर दूसरों को दुःखी करने का चिन्तन करना। तीव्र, क्रोध और लोभ के वशीभूत होकर चोरी करने का चिन्तन करना। शब्दादि पाँच विषयों के साधनभूत धन, स्त्री आदि के रक्षण का चिन्तन करना 'रौद्रध्यान' है। इस ध्यान में क्रूरता के कारण द्वेष के परिणाम अधिक मात्रा में होते हैं तथा अपने लोगों के साथ तीव्र आसक्ति होने से परिणाम रागात्मक भी हो जाते हैं।

3. धर्मध्यान - आत्मा को शुद्ध बनाने वाले ध्यान को 'धर्मध्यान' कहते हैं। वीतराग देव की आज्ञा को सत्य मानकर तत्वों का चिन्तन करना, राग-द्वेष आदि पापों एवं उनके विपाक (फल) का चिन्तन करना, कर्म के कटु फल का चिन्तन करना, लोक के आकार का चिन्तन करना, आत्म स्वरूप का चिन्तन करना आदि 'धर्मध्यान' कहलाता है। षटद्रव्यों के उत्पाद, व्यय व धौव्यरूप त्रिपदी का चिन्तन करना 'धर्मध्यान' है। इसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपरूप मोक्ष-मार्ग का स्वरूप समझकर अपने मन, वचन, काया को एकाग्र करके निरीक्षण, परीक्षण करते हैं। कर्म के फल, भावनाओं का स्वरूप और स्वाध्याय के भेदों के आधार पर विचार करते हैं। संसार की असारता का एकाग्र चिन्तन करना भी धर्मध्यान में समाहित है।

4. शुक्लध्यान - मन के परिणामों की स्थिरता एवं योगों का निरोध करना 'शुक्ल ध्यान' कहलाता है। शुक्ल अर्थात् निर्मल आत्म-स्वरूप का, आत्मा की विविध पर्यायों का, पर्याय बनने के अन्तरंग व बाहय निमित्तों का एकाग्रचित होकर विचार करना तथा अपने आत्म-स्वरूप में लीन होना शुक्ल ध्यान' है। दूसरे शब्दों में शरीर का छेदन-भेदन होने पर भी आत्म-स्वरूप में स्थिर हुआ चित्त लेशमात्र भी चलित नहीं होता हो, उसे 'शुक्लध्यान' कहते हैं। जो ध्यान कर्म-मल को तीव्र गति से दूर करता है वह भी 'शुक्ल ध्यान' है। पर आलम्बन के बिना निर्मल आत्म स्वरूप का अखण्ड अनुभव शुक्लध्यान है।

आर्तध्यान और रौद्रध्यान दोनों कर्म-बंधन के हेतु और आत्मा को विषम भावरूपी विभावों में भटकाने वाले होने से 'अप्रशस्त ध्यान' कहलाते हैं। धर्म व शुक्ल ध्यान स्वभाव दशा की ओर ले जाने में सहायक बनने के कारण प्रशस्त ध्यान कहलाते हैं। ध्यान सन्नी जीवों में पर्याप्त अवस्था में ही होता है। छदमस्थ में मन की एकाग्रता को तथा केवलियों में योग निरोध को ध्यान कहा है।

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