पच्चीस बोल-आठवें बोले योग पन्द्रह

योग का अर्थ है - जीव के साथ मन, वचन और काय की क्रिया का जुड़ना। वीर्यान्तराय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम से होने वाली मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को 'योग' कहते हैं। मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से आत्म-प्रदेशों में जो स्पन्दन (कम्पन-हलन-चलन) होता है, उसे भी 'योग' कहते हैं।

पच्चीस बोल-आठवें बोले योग पन्द्रह

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पच्चीस बोल - आठवें बोले योग पन्द्रह

आठवें बोले योग पन्द्रह -
(चार मन के) 1. सत्य मनोयोग, 2. असत्य मनोयोग, 3. मिश्र मनोयोग, 4. व्यवहार मनोयोग,
(चार वचन के) 5. सत्य भाषा, 6. असत्य भाषा, 7. मिश्र भाषा, 8. व्यवहार भाषा,
(सात काय के) 9. औदारिक, 10. औदारिक मिश्र, 11. वैक्रिय, 12. वैक्रिय मिश्र, 13. आहारक, 14. आहारक मिश्र और, 15. कार्मण काययोग।
आधार- भगवती शतक 25 उद्देशक 1, प्रज्ञापना पद 16

योग- योग का अर्थ है - जीव के साथ मन, वचन और काय की क्रिया का जुड़ना। वीर्यान्तराय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम से होने वाली मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को 'योग' कहते हैं। मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से आत्म-प्रदेशों में जो स्पन्दन (कम्पन-हलन-चलन) होता है, उसे भी 'योग' कहते हैं। योग के पन्द्रह भेद इस प्रकार हैं

1. सत्य मनोयोग - पदार्श के यथार्थ स्वरूप का चिन्तन करना सत्य मनोयोग है।
2. असत्य मनोयोग - जिस प्रकार का वस्तु का स्वरूप नहीं है, उस रूप में उसका विचार-चिन्तन करना 'असत्य मनोयोग' कहलाता है।
3. मिश्र मनोयोग - सत्य और असत्य से मिश्रित अर्थात् जिसमें सत्यांश भी हो और आंशिक असत्य भी हो, इस प्रकार के विचार-चिन्तन को 'मिश्र मनोयोग' कहते हैं।
4. व्यवहार मनोयोग - जो न तो सत्य हो और न ही असत्य हो, ऐसा विचार चिन्तन करना व्यवहार मनोयोग है अथवा आमन्त्रण, आदेश, याचना, पृच्छा, प्ररूपणा आदि से सम्बन्धिात विचार करना 'व्यवहार मनोयोग' है।
5. सत्य भाषा - (6) असत्य भाषा, (7) मिश्र भाषा व (8) व्यवहार भाषा - इनको भी मनोयोग की भांति समझ लेना चाहिए। अन्तर केवल इतना ही है कि मनोयोग में सच्चा, झूठा, मिश्र एवं व्यावहारिक चिन्तन है, जबकि वचन योग में सत्य-असत्य आदि बोलना है।
9. औदारिक काययोग - शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के पश्चात् औदारिक शरीर से जो हलन-चलन आदि क्रिया होती हैं, उसे 'औदारिक काय योग' कहते हैं। यह शरीर पर्याप्ति से युक्त अपर्याप्त तथा पर्याप्त मनुष्यों और तिर्यञ्चों में होता है।
10. औदारिक मिश्र काययोग - मनुष्य, तिर्यञ्च के अपर्याप्त अवस्था में उत्पत्ति समय से लेकर जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो, तब तक के अन्तर्मुहूर्त काल की प्रवृत्ति (क्रिया) को औदारिक मिश्र काययोग' कहते हैं। पर्याप्त अवस्था में मनुष्य, वैक्रिय अथावा आहारक लब्धि का एवं तिर्यञ्च, वैक्रिय लब्धि का प्रयोग कर जब मूल औदारिक शरीर में आता है तब भी औदारिक मिश्र काययोग होता है। सयोगी केवली द्वारा केवली समुद्घात करते समय दूसरे, छठे व सातवें समय में औदारिक व कार्मण शरीर की जो संयुक्त प्रवृत्ति होती है, उसे भी औदारिक मिश्र काययोग' कहते हैं।
11. वैक्रिय काययोग - देवों एवं नारकों में शरीर पर्याप्ति की पूर्णता के बाद और वैक्रिय लब्धि वाले मनुष्यों-तिर्यञ्चों में लब्धि जन्य वैक्रिय शरीर बनने के बाद वैक्रिय शरीर की जो क्रिया होती है, वह वैक्रिय काययोग' है।
12. वैक्रिय मिश्र काययोग - नारकी, देवता के अपर्याप्त अवस्था में उत्पत्ति समय से लेकर जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो तब तक के अन्तर्मुहूर्त काल की क्रिया को बैक्रिय मिश्र काययोग' कहते हैं। नारकी, देवता जब पर्याप्त अवस्था में उत्तर वैक्रिय करते हैं तब भी उनमें वैक्रिय मिश्र काययोग माना जाता है। मनुष्य, तिर्यञ्च में वैक्रिय लब्बिा का प्रयोग करने पर वैक्रिय शरीर की शरीर पर्याप्ति जब तक पूर्ण न हो, तब तक के काल में होने वाली क्रिया को भी वैक्रिय मिश्र काययोग' कहते हैं।
13. आहारक काययोग - लब्धि द्वारा बनाये हुए पूर्ण आहारक शरीर से तीर्थंकरों के पास शंका निवारण हेतु गमनागमन आदि की जो क्रिया होती है, उसे आहारक काययोग' कहते हैं।
14. आहारक मिश्र काययोग - आहारक लब्धिवन्त अणगार प्रमत्त अवस्था में जब आहारक शरीर बनाते हैं, उस समय जब तक आहारक शरीर की शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो तब तक के अन्तर्मुहूर्त काल में होने वाली क्रिया को आहारक मिश्र काययोग कहते हैं।
15. कार्मण काययोग - कार्मण शरीर से जो क्रिया-व्यापार होता है, यह अनाहारक अवस्था में ही होता है। जीव जब एक भव से दूसरे भव में जाता है तब वक्रगति में एक-दो-तीन समय तक अनाहारक रह सकता है। उस वक्त होने वाली क्रिया कार्मण काय योग कहलाती है। इसी प्रकार केवली समुद्घात में भी जीव तीसरे, चौथे एवं पाँचवें समय में अनाहारक रहता है, अत: वहाँ भी कार्मण काययोग होता है।

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