चण्डरुद्राचार्य की कथा

जो मानव सर्व जीवों से क्षमायाचना करके उन्हें क्षमा प्रदान करता है, वह चण्डरुद्राचार्य के समान कर्मक्षय कर लेता है

चण्डरुद्राचार्य की कथा

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चण्डरुद्राचार्य की कथा

जो मानव सर्व जीवों से क्षमायाचना करके उन्हें क्षमा प्रदान करता है, वह चण्डरुद्राचार्य के समान कर्मक्षय कर लेता है

उज्जैन नगर में चण्डरुद्र नामक एक प्रसिद्ध आचार्य थे। वे स्वभाव से अत्यन्त क्रोधी थे, इसलिए वे प्रयत्नपूर्वक अपने क्रोध का उपशम कर साधुओं से रहित एकान्त में ही स्वाध्याय एवं ध्यान करते थे। एक समय मित्र-मण्डली से युक्त नवविवाहित युवक क्रीड़ा करते हुए मुनि को देख वन्दनार्थ आए। तब मित्रों ने हंसी-मजाक में कहा- "हे भगवन्त! संसारवास से अत्यन्त उद्विग्न बना यह हमारा मित्र दीक्षा लेने की इच्छा करता है, इसीलिए यह श्रेष्ठ श्रृंगार करके आया है। आप इसे दीक्षा दें।" आचार्य उनकी मजाक का कोई प्रत्युत्तर न देकर चुप रहे, किन्तु मित्र-मण्डल द्वारा पुनः पुनः आग्रह करने पर 'अरे! ये मेरे साथ भी हंसी करते हैं '- ऐसा सोचकर आचार्य को तीव्र क्रोध हुआ। दुःशिक्षित को शिक्षा देने के उद्देश्य से उन्होंने उसे मजबूती से पकड़कर नमस्कार मन्त्र सुनाकर उसका लोच कर दिया। भवितव्यतापूर्वक किसी ने कुछ भी नहीं कहा।

लोच होने के बाद श्रेष्ठी-पुत्र ने कहा- "हे भगवान्! इतने समय तक तो हम मजाक कर रहे थे, परन्तु अब सदभाव प्रकट हुआ, इसलिए दीक्षा प्रदान करो।" उसके ऐसा कहने पर आचार्य ने उसे दीक्षा प्रदान की। नूतन दीक्षित मुनि ने कहा- "हे भगवन्तु। यहाँ मेरे स्वजन-सम्बन्धी बहुत हैं, इसलिए मैं यहा निर्विघ्न धर्म-आराधना नहीं कर सकता हूँ, अतः यहाँ से विहार करके हम कहीं अन्यत्र चलें।" आचार्य ने नूतन मुनि की बात स्वीकार कर रात्रि में ही विहार कर दिया। वृद्धावस्था के कारण आचार्य काँपते हुए मुनि के कंधे पर हाथ रखकर धीरे-धीरे चलने लगे। रात्रि में अन्धकार होने से अल्प भी पैर डगमगाता, तो क्रोधातुर होकर वे नए मुनि का कठोर शब्दों से तिरस्कृत करते। इस तरह बार-बार तिरस्कार करने के साथ ही दण्ड से नए मुण्डित मुनि के मस्तक पर प्रहार भी करते।

नव दीक्षित मुनि मन-ही-मन चिन्तन करता- 'अहो! मैंने गुरुदेव को दुःख-रूपी समुद्र में डाला है। मैं शिष्य के बहाने इन गुरुदेव का शत्रु बना हूँ। मुझे धिक्कार हो! धिक्कार हो मेरे दुराचरण को!' मुनि शुभभावपूर्वक अपने दोषों की निन्दा करने लगा। इस प्रकार पापों का मिथ्यादुष्कृत देते हुए मुनि को केवलज्ञान प्रकट हुआ। अपने निर्मल शुद्ध ज्ञान से जगत् प्रत्यक्ष दिखाई देने लगा, जिससे वह शिष्य सम्यक् रूप से चलने लगा और गुरु के पैरों की स्खलना भी बन्द हो गई।

इस प्रकार रातभर चलते रहने के बाद जब प्रभात हुआ, तब शिष्य के मस्तक पर दण्ड के प्रहार से निकला हुआ खून और मस्तक पर लगी चोट को देखकर चण्हरुद्राचार्य ने विचार किया- 'अहो! प्रथम दिन के दीक्षित इस नए मुनि की ऐसी क्षमा है और चिरकाल होने पर भी मेरा ऐसा आचरण है। क्षमा-गुण से रहित मेरे विवेक को धिक्कार है। मेरी श्रुतसम्पत्ति को धिक्कार है! मेरे आचार्य पद को भी धिक्कार है।' इस तरह संवेग प्राप्तकर शिष्य से बार-बार क्षमायाचना करते हुए चण्डरुद्राचार्य भी केवली बन गए। इस प्रकार क्षमायाचना करके एवं क्षमा प्रदान करके जीव अपने कर्म के समूह को नष्ट कर लेता है।

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