एषणा समिति-पाँच समिति
एषणा समिति - 42 दोष टालकर भिक्षा आदि लेने की सम्यक् (निर्दोष) प्रवृत्ति को एषणा समिति कहते हैं।
एषणा समिति के तीन भेद - 1. गवेषणैषणा 2. ग्रहगैषणा 3. परिभोगैषणा।
1. गवेषणेषणा - आहार आदि ग्रहण करने के पहले शुद्धि - अशुद्धि की खोज करना गवेषणेषणा है।
2. ग्रहणेषणा - आहारादि ग्रहण करते समय शुद्धि - अशुद्धि का ध्यान रखना ग्रहणेषणा है।
3. परिभोगैषणा - आहारादि भोगते समय शुद्धि - अशुद्धि का उपयोग रखना परिभोगेषणा है।
गवेषणैषणा के चार भेद - 1. द्रव्य 2. क्षेत्र 3. काल 4. भाव।
1. द्रव्य से - प्रासुक एषणीय और कल्पनीय वस्तु की गवेषणैषणा करे
(प्रासुक अर्थात् जो जीवो से रहित बन चुकी है, अचित्त बनी हुई है। ऐसी आहार आदि समग्री ग्रहण करना। एषणीय- उद्गम, उत्पादन और शक्ति आदि के ४२ दोषों को टाल कर आहार आदि ग्रहण करना। कल्पनीय - साधू की कल्प मर्यादा के अनुसार आहार आदि ग्रहण
करना। स्तनपान कराती हुई स्त्री से, गर्भवती स्त्री से आहार आदि लेगा, घर के आगे
भिखारी, गाय, कुत्ते आदि खड़े होने पर भी उस पर से आहार आदि लेना अकल्पनीय है।)
2. क्षेत्र से - दो कोस के क्षेत्र में गवेषणैषणा करे।
3. काल से - दिन को गवेषणैषणा करे, रात्रि को नहीं करे।
4. भाव से - 32 दोष रहित गवेषणेषणा करे।
गवेषणैषणा के 32 दोष
16 उद्गम के और 16 उत्पादना के, ये गवेषणैषणा के 32 दोष इस प्रकार हैं:
उद्गम के 16 दोष - देने वाले दाता के निमित्त (कारण) से लगते हैं।
1. आहाकम्म - साधु के निमित्त छः काय का आरंभ कर बना हुआ आहार आदि लेवे तो आधाकर्मी दोष।
2. उद्देसिय - जिस साधु के निमित्त जो आहार आदि बनाया है, उसे वही साधु लेवे तो आधाकर्मी और अन्य साथु लेवे तो औद्देशिक दोष।
3. पूईकम्मे - सूझते आहार में आचाकर्मी का अंश मात्र भी मिल जाय तथा हजार घर के आंतरे आधाकर्मी आहार का अंश मात्र भी मिल जाय और वह लेवे तो पूर्तिकर्म दोष।
4. मीसजाए - गृहस्थ अपने और साधु के लिये शामिल बनाकर देवे तो मिश्रजात दोष।
5. ठवणा - साधु के निमित्त अशनादि आहार स्थापना कर रखे, अन्य को नहीं देवे तो स्थापना दोष।
6. पाहुडियाए - साधु के लिये मेहमानों को आगे-पीछे करे तो प्राभृतिक दोष।
7. पाओअर - अंधेरे में प्रकाश करके अथवा अधेरे से उजाले में लाकर देवे तो प्रादुष्करण दोष।
8. कीय - साधु के निमित्त खरीद कर देवे तो क्रीत दोष
9. पामिच्चे - साधु के निमित्त उधार लाकर देवे तो प्रामृत्य दोष।
10. परियट्टिए - साधु के निमित्त अपनी वस्तु देकर बदले में दूसरी वस्तु लाकर देवे तो परिवर्तित दोष।
11. अभिहडे - साधु के निमित्त सामने लाकर देवे तो अभिहत दोष।
12. उब्मिन्ने - लेपनादि-ढक्कन आदि अयतना से खोलकर देवे तो उदभिन्न दोष। अथवा पीछे जिसका लेपन-ढक्कन आदि अयतना से लगाया जाय वैसा आहारादि देना।
13. मालोहडे - सीढ़ी-निसरणी आदि लगाकर ऊँचे, नीचे, तिरछे आदि स्थान से जिससे अयतना होवे, वहाँ से वस्तु निकालकर देवे तो मालापहृत दोष।
14. अच्छिज्जे - निर्बल से सबल जबरदस्ती छीन कर देवे तो आच्छेद्य दोष।
15. अणिसिट्टे - दो के शामिल की वस्तु एक दूसरे की बिना आज्ञा के देवे तो अनिःसृष्ठ दोष।
16. अज्झोयरए - बनते हुए आहारादि में साधु को आया जानकर उसकी मात्रा में बढ़ोतरी कर दे तो अध्यवपूरक दोष।
उत्पादना के 16 दोष - ये दोष जीभ की लोलुपता वश साधु लगाते हैं।
१. धाई - धाय माता की तरह बालक आदि को खिलाकर आहारादि लेवे तो धात्री दोष।
२. दूई - दूति की तरह संदेश पहुँचा कर आहारादि लेवे तो दूति दोष।
३. निमित्ते - निमित्त-ज्ञान से भूत-भविष्य-वर्तमान काल के लाभ-अलाम, सुख-दुःख, जीवन-मरणादि बतलाकर आहार आदि लेवे तो निमित्त दोष।
४. आजीव - अपनी जाति कुल आदि बताकर आहारादि लेवे तो आजीव दोष।
५. वणीमगे - रंक-भिखारी की तरह दीनपन से माँगकर आहारादि लेवे तो वनीपक दोष।
६. तिगिच्छे - वैद्य की तरह चिकित्सा करके आहारादि लेवे तो चिकित्सा दोष।
७. कोहे - क्रोध करके गृहस्थ को शाप आदि का भय दिखला कर आहारादि लेवे तो क्रोथ दोष।
८. माणे - मान करके आहारादि लेवे तो मान दोष।
९. माया - कपटाई (माया) करके आहारादि लेवे तो माया दोष।
१०. लोहे - लोभ करके अधिक आहारादि लेवे अथवा लोभ बतलाकर लेवे तो लोभ दोष।
११. पुविपच्छासंथव - पहले या पीछे दाता की प्रशंसा करके आहारादि लेवे तो पूर्व पश्चात संस्तव दोष।
१२. विज्जा - जिसकी अधिष्ठात्री देवी हो अथवा जो साथना से सिद्ध की गई हो, उसे विद्या कहते हैं। ऐसी विद्या के प्रयोग से आहारादि लेवे तो विद्या दोष।
१३. मंते - जिसका अधिष्ठाता देव हो अथवा जो बिना मात्रा के अक्षर विन्यास मात्र हो, उसको मंत्र कहते हैं। ऐसे मंत्र के प्रयोग से आहारादि लेवे तो मन्त्र दोष।
१४. चुण्ण - एक वस्तु के साथ दूसरी वस्तु मिलाने से अनेक तरह की सिद्धि होती हैं। ऐसे अंजनादि के प्रयोग से आहारादि लेवे तो चूर्ण दोष।
१५. जोगे - लेपनादिक सिद्धि(जिसका लेप करने से आकाश में उड़ना, जल पर चलना आदि हो) बतलाकर आहार आदि लेवे तो योग दोष।
१६. मूलकम्मे - गर्भस्तंभन, गर्भाधान, गर्भपातादि ऐसी जड़ी-बूटी दिखलाकर अथवा औषध बतलाकर आहारादि लेवे तो मूलकर्म दोष।
2. ग्रहणैषणा के 4 भेद -
1. द्रव्य 2. क्षेत्र 3. काल 4. भाव।
1. द्रव्य से - योग्य कल्पनिक-प्रासुक वस्तु को ग्रहण करे।
2. क्षेत्र से- दो कोस के क्षेत्र में से ग्रहण करे।
3. काल से - दिन में देखे हुए पाट-पाटलादि रात्रि को भी ग्रहण कर सकते हैं।
4. भाव से - शंकितादि दस दोष रहित ग्रहण करे।
ग्रहगैषणा के दस दोष इस प्रकार हैं : 10 दोष - ये गृहस्थ तथा साधु दोनों को लगते हैं।
1. संकिय - गृहस्थ अथवा साधु को शंका हो जाने के बाद आहारादि लेवे तो शकित दोष।
2. मक्खिय - संचित्त पानी से हाथ की रेखा, बाल भीगे हों, उसके हाथ से आहारादि लेवे तो म्रक्षित दोष।
3. निक्खित्त - सचित्त वस्तु पर रक्खा हुआ निर्दोष आहारादि लेवे तो निक्षिप्त दोष।
4. पिहिय - निर्दोष वस्तु सचित्त से ढंकी हो, वह लेवे तो पिहित दोषा।
5. साहरिय - सचित्त वस्तु जिस बर्तन में पड़ी हो, वह वस्तु दूसरे बर्तन में डालकर, उसी बर्तन से योग्य आहारादि लेवे तथा पश्चात् कर्म होने की सम्भावना हो उस घर से आहार लेवे तो साहृत दोष।
6. दायग- अंधा, लूला, लंगड़ा आदि से (अयतना से अथवा अयतना करता बहरावे) लेवे तो दायक दोष।
7. उम्मीसे - मिश्र वस्तु लेवे तो उन्मिश्र दोष।
8. अपरिणय - बिना शस्त्र परिणत (पूरा अचित्त न बना हुआ) लेवे तो अपरिणत दोष।
9. लित्त - तुरन्त की लीपी हुई भूमि आदि हो उस पर से जाकर आहारादि लेये तो लिप्त दोष।
10. छडडीय - अशनादि का छाँटा(बूंद) गिरता होवे और लेवे तो छर्दित दोष।
3. परिभोगैषणा के चार भेद -
1. द्रव्य 2. क्षेत्र 3. काल 4. भाव
1. द्रव्य से - आहार, उपासरा, वस्त्र, पात्र आदि निर्दोष भोगवे।
2. क्षेत्र से - सर्व क्षेत्र में।
3. काल से - पहले प्रहर का आहार-पानी चतुर्थ प्रहर में नहीं भोगवे।
4. भाव से - माँडला के पाँच दोष टालकर उपयोग सहित (राग-द्वेष रहित) भोगवे।
परिभोगैषणा के पाँच दोष इस प्रकार हैं : 5 दोष - ये साधु को आहार करते समय लगते हैं :-
1. संजोयणा - अच्छा स्वाद या गंध उत्पन्न करने के लिए संयोग मिलाना संयोजना दोष है।
2. अपमाण - तृष्णा अथवा जिहवा के स्वाद के लिए खुराक (प्रमाण) से अधिक आहार करना अप्रमाण दोष है।
3. इंगाले - भोजन में गृद्ध होकर उसके स्वाद की प्रशंसा करते हुए खाना इंगाल दोष है।
4. धुमें - प्रतिकूल रूप, रस और गंध की निंदा करते हुए घृणा से भोजन करना धूम दोष है।
5. कारणे - साधु 6 कारण से आहार करे व 6 कारण से आहार छोडे, इनके विपरीत करे तो कारण दोष।
आहार करने के 6 कारण - साधु 6 कारणों से आहार करते हैं -
1. क्षुधा वेदनीय की शान्ति के लिये।
2. गुरु, ग्लान, नवदीक्षित, तपस्वी आदि की वैयावृत्त्य के लिये।
3. मार्ग आदि की शुद्धि के लिये।
4. संयम की रक्षा के लिये।
5. प्राणों की रक्षा के लिये।
6. धर्म का चिन्तन - मनन करने के लियो
आहार छोड़ने के 6 कारण - साधु 6 कारणों से आहार छोड़ते हैं
1. शूलादि रोग उत्पन्न होने पर।
2. देवता, मनुष्य, तिर्यंच संबंधी उपसर्ग उत्पन्न होने पर।
3. ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए।
4. प्राणियों की रक्षा के लिए।
5. तपस्या करने के लिये।
6. शरीर का त्याग करने के लिए।