उच्चार प्रस्रवण खेल-जल्ल-सिंघाण परिष्ठापनिका समिति-पाँच समिति
उच्चार प्रस्रवण खेल - जल्ल-सिंघाण परिष्ठापनिका समिति
स्थण्डिल के 10 दोषों को टालकर विधिपूर्वक परठने की सम्यक् (निर्दोष) प्रवृत्ति को उच्चार - प्रस्रवण - खेल - जल्ल - सिंधाण परिष्टापनिका समिति कहते हैं।
इसके चार भेद हैं - 1. द्रव्य 2. क्षेत्र 3. काल 4. भाव
1. द्रव्य से - उच्चारादि परठने की वस्तु। (परठने की आठ वस्तु - 1. उच्चार-मल 2. प्रस्रवण-मूत्र 3. खेल-बलगम (कफ) 4. सिंघाण- श्लेष्म-नाक का मैल 5. जल्ल-शरीर का मेल 6. आहार-पानी 7. उपधि-जीर्ण वस्त्रादि, पाटादि 8. देह व अन्य वस्तु-गोबर, राख, केशादि)
2. क्षेत्र से - योग्य प्रासुक क्षेत्र में परठे।
3. काल से - दिन को देखकर रात्रि में पूँजकर परठे।
4. भाव से - दस प्रकार की स्थंडिल भूमि में परठे।
दस प्रकार की स्थंडिल भूमि
1. गृहस्थ आवे नहीं, देखे नहीं। आवे नहीं, देखे हैं। आवे हैं, देखे नहीं। आवे हैं, देखे हैं। इन चार भंगों में प्रथम भंग परठने हेतु उत्तम है।
2. आत्मा (शरीर-विराधना) जीव (छह काय-विराधना) तथा प्रवचन (शासन की निन्दा) का उपघात हो, ऐसे स्थान पर नहीं परठे।
3. समभूमि पर परठे।
4. पोलार रहित अथवा तृणादि के आच्छादन से रहित भूमि पर परठे।
5. थोड़े काल की अचित्त हुई भूमि पर परठे।
6. जघन्य एक हाथ चौरस भूमि पर परठे।
7. नीचे चार अंगुल अचित्त भूमि पर परठे।
8. ग्राम-नगर-उद्यानादि के अत्यन्त निकट न परठे।
9. चूहे के बिल आदि रहित भूमि पर परठे।
10. त्रस प्राणी तथा बीजादि रहित भूमि पर उपयोग सहित परठे।