आगम-अर्थ एवं विशेषताएँ

आ = आप्त (सर्वज्ञ) पुरुषों द्वारा कथित, ग = गणधरों द्वारा ग्रथित, म = मुनियों द्वारा आचरित, जिन शास्त्रों के माध्यम से भव्य जीवों में ज्ञान का आगमन हो, अथवा भव्य जीवों को सम्यगृज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र रूप मोक्ष-मार्ग की प्राप्ति हो, उन्हें आगम कहते हैं।

आगम-अर्थ एवं विशेषताएँ

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आगम - अर्थ एवं विशेषताएँ

जैन धर्म के प्रतिपादक शास्त्रों को जैनागम कहते हैं। जैनागम जिनप्रणीत एवं गणधर द्वारा सूत्र रूप से ग्रथित होते हैं। इन्हें गणिपिटक नाम से भी जाना जाता है। इनका एक नाम द्वादशांगी भी है।

आगम नाम क्यों?

जब तीर्थंकरों को केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त हो जाता है, तब वे धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं। अपनी साक्षात् अनुभूतियों का अर्थ रूप में उपदेश देते हैं। जिसे सुनकर 'गण' लब्धि के धारक गणधर शासन-हित के लिये उसे सूत्र रूप में गूंथते हैं, वे सूत्र आगम कहलाते हैं।

आगम का अर्थ
आ = आप्त (सर्वज्ञ) पुरुषों द्वारा कथित
ग = गणधरों द्वारा ग्रथित
म = मुनियों द्वारा आचरित जिन शास्त्रों के माध्यम से भव्य जीवों में ज्ञान का आगमन हो, अथवा भव्य जीवों को सम्यगृज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र रूप मोक्ष-मार्ग की प्राप्ति हो, उन्हें आगम कहते हैं।

आगम ज्ञान की आवश्यकता

वर्तमान भौतिक युग में विलासिता के साधनों में वृद्धि हो रही है। चारों ओर बच्चों के चरित्र को दूषित करने वाले अश्लील व जासूसी उपन्यास तथा फिल्मी पत्रिकाओं आदि का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा है। ऐसे विषम समय में भोगवादी संस्कृति की ओर बढ़ती हुई हमारी भावी पीढ़ी में संस्कारों का वपन करने तथा उनके जीवन को सुसंस्कृत बनाने के लिए आगम ज्ञान के प्रचार-प्रसार एवं उनके नियमित स्वाध्याय की महती आवश्यकता है। यदि हम आगम के अध्ययन-अध्यापन में प्रवृत्त होंगे तो हमारी भावी पीढ़ी का भी इस ओर झुकाव होगा, जिससे सुसंस्कृत समाज का निर्माण होगा तथा हम मानव जीवन के मूल्य एवं चरम लक्ष्य को पहचान सकेंगे।

आगम के लक्षण

1. ये आप्त पुरूषों के वचन हैं।
2. ये वीतराग द्वारा प्रणीत होने से सर्वजीवों के लिए एकांत हितकर होते हैं।
3. आगम त्रिकाल-सत्य सिद्धान्तों का संग्रह हैं।
4. आगम स्याद्वाद सिद्धान्त से अनुप्राणित (ओतप्रोत) होते हैं।

आगम की विशेषताएँ

1. जैनागम प्राकृत (अर्द्धमागधी) भाषा में रचित हैं।
2. जिन-प्रणीत होने से सम्पूर्ण आगम मंगलाचरण रूप हैं।
3. जैनागम गद्य एवं पद्य दोनों विधाओं (रूप, प्रकार) में हैं। इनके पद्य को 'गाथा' कहते हैं।
4. कुछ आगम सूत्रात्मक शैली में रचित हैं।
5. कुछ आगमों का निरूपण प्रश्नोत्तर शैली में किया गया है, यथा - भगवती सूत्र।
6. इनमें विभिन्न विषयों का वर्गीकरण कर एकाधिक स्थान पर एक विषय को स्पष्ट किया गया है।
7. जैनागम द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग और धर्मकथानुयोग इन चार अनुयोगों में व्यवस्थित हैं।
8. अर्थ (भाव) रूप से आगम अनादि अनन्त हैं, जबकि सूत्र (शब्द) रूप से सादि-सान्त हैं।

आगम के रचनाकार

जैनागम तीर्थकरों की अर्थरूप वाणी का गणधरों द्वारा सूत्र रूप में ग्रन्थन है। इस प्रकार जैनागम या द्वादशांगी के रचनाकार गणधर हैं।

वर्तमान जैनागम भगवान् महावीर की अर्थ रूप वाणी का आर्य सुधर्मा द्वारा सूत्र रूप में ग्रन्थन है। द्वादशांगी आर्य सुधर्मा की रचना है तथा शेष आगम उनके आधार पर श्रुतकेवली एवं दशपूर्वधरों की रचना हैं। वर्तमान आगमों को लिपिबद्ध करने का श्रेय एक पूर्वधारी आचार्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण को है।

आगम के भेद

आगम के मुख्य रूप से तीन भेद होते हैं
1. सूत्रागम (सुत्तागमे) - सूत्र रूप से गणधरों द्वारा रचित आगम सूत्रागम कहलाते हैं।
2. अर्थागम (अत्थागमे) - अर्थ रूप में रचित आगम अर्थागम कहलाते हैं। तीर्थकर भगवान अर्धमागधी भाषा में जो उपदेश देते हैं, वह अर्थागम है तथा सूत्रागमों के हिन्दी आदि भाषाओं में जो अनुवाद किये गये हैं, वे भी अर्थागम के नाम से कहे जाते हैं।
3. तदुभयागम- सूत्र व अर्थ दोनों रूप में रचित आगम तदुभयागम कहलाते हैं।

दूसरी अपेक्षा से आगम के तीन प्रकार अनुयोगद्वार सूत्र के ज्ञान प्रमाणाधिकार में इस प्रकार बतलाये हैं- (1) आत्मागम, (2) अनन्तरागम, और (3) परम्परागम।

तीर्थकर द्वारा कथित अर्थ उनके स्वयं के लिये आत्मागम कहलाते हैं। गणधर रचित सूत्र रूप आगम गणधर के लिए आत्मागम है और अर्थ रूप आगम उनके लिये अनन्तरागम है। गणधरों के शिष्यों के लिये सूत्र-आगम अनन्तरागम तथा अर्थ आगम परम्परागम है। पश्चात्वर्ती आचार्यों, शिष्यों तथा प्रशिष्यों के लिये सूत्र और अर्थ रूप दोनों ही आगम परम्परागम कहलाते हैं।


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