अस्वाध्याय संबंधी जिज्ञासा

जिस क्षेत्र और काल में मूल आगमों का स्वाध्याय नहीं किया जा सके, उसे अस्वाध्याय कहते हैं।

अस्वाध्याय संबंधी जिज्ञासा

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स्वाध्याय शिक्षा पत्रिका से साभार (संकलन :- श्री धर्मचंद जी जैन)

 

जिज्ञासा - अस्वाध्याय किसे कहते हैं?
समाधान - जिस क्षेत्र और काल में मूल आगमों का स्वाध्याय नहीं किया जा सके, उसे अस्वाध्याय कहते हैं। इस दृष्टि से अस्वाध्याय दो प्रकार का होता है 1. आत्म समुत्थ, 2. पर समुत्थ। अपने शरीर में रक्त आदि से अस्वाध्याय का जो कारण होता है, उसे आत्म समुत्थ कहते हैं तथा बाहर के अन्य मनुष्य तिर्यञ्च सम्बन्धी अशुद्धि के कारण अथवा आकाशादि के कारण जो अस्वाध्याय होता है, उसे पर समुत्थ कहते हैं।


जिज्ञासा - अस्वाध्याय सुत्तागमे, अत्थागमे में से किसका होता है?
समाधान - अस्वाध्याय सुत्तागमे अर्थात् वर्तमान में उपलब्ध आगम के मूल पाठों पर लागू होती है। इनमें से नन्दीसूत्र की प्रारम्भिक 50 गाथाओं, दशवैकालिक सूत्र की दोनों चूलिकाओं पर अस्वाध्याय लागू नहीं होता। मूल पाठ, गाथाओं आदि के नीचे जो शब्दार्थ-अन्वयार्थ दिये होते हैं, उनमें मूल पाठ के शब्द भी होते हैं, अत: उन मूल पाठ के शब्दों को भी अस्वाध्याय काल में नहीं पढ़ना चाहिए। संस्कृत छाया, पद्यानुवाद, अर्थ, भावार्थ, विवेचन आदि अस्वाध्याय काल में पढ़ने में बाधा नहीं समझनी चाहिए।

जिज्ञासा - नन्दीसूत्र की 50 गाथाएँ तथा दशवकालिक की दोनों चूलिकाओं पर अस्वाध्याय लागू क्यों नहीं होता?
समाधान - यद्यपि नन्दीसूत्र की 50 गाथाएँ तथा दशवैकालिक की दोनों चूलिकाएँ आगम का हिस्सा है, तथापि नन्दी सूत्र की 50 गाथाएँ पूर्वज्ञान से उद्धृत नहीं है, आचार्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित है, अतः स्वाध्याय में गणना करते हुए भी इनका अस्वाध्याय नहीं माना जाता है।

दशवकालिक की दोनों चूलिकाओं के सन्दर्भ में ऐसा माना जाता है कि आचार्य स्थूलिभद्र जी की बहिन यक्षा आर्याजी को सीमन्धर स्वामी भगवान से ये प्राप्त हुई तथा ये चूलिकाएँ दशवैकालिक सूत्र की रचना के बाद में जोड़ी गयी, अत: स्वाध्याय में इनकी गणना करते हुए भी इनका अस्वाध्याय नहीं माना जाता है।

जिज्ञासा - क्या अर्थागमों पर कोई अतिचार लागू नहीं होते?
समाधान-अर्थागमों पर आगमे तिविहे के अंतिम चारों अतिचार 1. अकाले कओ सज्झाओ, 2. काले न कओ सज्झाओ, 3. असज्झाइए सज्झायं, 4. सन्झाइए न सज्झायं लागू नहीं होते, किन्तु प्रारम्भ के 10 अतिचार-वाइदं, वच्चामेलियं, हीणक्खरं, अच्चक्खरं, पयहीणं, विणयहीणं, जोगहीणं, घोसहीणं, सुहृदिण्णं, दुइपडिच्छियं तो लागू होते ही हैं।

प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति, राज्यपाल, मुख्यमन्त्री आदि की मृत्यु हो जाने पर, जिस स्थान पर वातावरण में विपरीतता हो, शोक, उदासी अथवा उत्तेजना हो तो वहाँ पर प्रवचन, गोष्ठी, सामूहिक चर्चा आदि नहीं करने चाहिए। युद्ध जनित वातावरण रहने पर वातावरण में जब तक उत्तेजना रहे तब तक सामूहिक स्वाध्यायादि नहीं करना चाहिए। धीमे-धीमे मन्द स्वर में अकेले में अथवा दो-चार जनों में अर्थागम का स्वाध्याय किया जा सकता है।

जिज्ञासा - गर्भज मनुष्य के अस्थि, मांस, रक्त से सम्बन्धित अस्वाध्याय में किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
समाधान - 1. सौ हाथ के भीतर यदि गर्भज मनुष्य के रक्त सहित चर्म, खून, मांसादि पड़े हों तो, ये पदार्थ जब से जीव रहित हुए हों तब से लेकर आठ प्रहर तक आगम में मूल पाठों की अस्वाध्याय मानी जाती है।
2. जिस गली/घर की पंक्ति में गर्भज मनुष्य का शव पड़ा हो तो जब तक शव वहाँ से निकाला नहीं जाये तब तक अस्वाध्याय मानी जाती है।
3. मनुष्य की हड्डी सौ हाथ के भीतर हो तो जब से वह हड्डी जीव रहित हुई हो तब से लेकर जब तक हड्डी वहाँ पड़ी रहे, तब तक अस्वाध्याय रहता है। बारह वर्ष के बाद भी यदि वह हड्डी पड़ी रहे तो उसका अस्वाध्याय नहीं होता। बारह वर्ष के पहले भी यदि हड्डी जल गई हो या वर्षा आने से अच्छी तरह धुल गई हो तो जलने एवं धुलने के बाद में अस्वाध्याय नहीं होता।
4. खून यदि विवर्ण हो गया हो अर्थात् उसका रंग (पर्याय) बदल गया हो तो अस्वाध्याय नहीं माना जाता है।
5. सौ हाथ के भीतर यदि बालक का जन्म हो तो जन्म के सात दिन तक तथा यदि बालिका का जन्म हो तो जन्म के आठ दिन तक अस्वाध्याय मानी जाती है। प्रसूति के घर पर आने पर उस घर पर अस्वाध्याय मानना चाहिए। सात-आठ दिन रक्तस्राव होने से उस घर पर अस्वाध्याय मानी जाती है। पहले घर में नाल गाड़े जाने के कारण सात-आठ घरों तक अस्वाध्याय मानी जाती थी, अब ऐसा नहीं होने से सात-आठ घरों तक अस्वाध्याय नहीं मानी जाती है।
6. गर्भज मनुष्य का मल चाहे सूखा हो अथवा गीला, उसका अस्वाध्याय माना जाता है। दस्त लगने पर अथवा वमन होने पर यदि कपड़े वगैरह भरे हुए नहीं हों, गन्ध नहीं आ रही हो, पूरी शुद्धि कर ली गई हो तो अस्वाध्याय नहीं माना जाता है।
7. सामान्यत: पेशाब का अस्वाध्याय नहीं होता, किन्तु यदि तेज गन्ध आ रही हो तो अस्वाध्याय मानना चाहिए।
8. आँखों का मैल, श्लेष्म (सूखा अथवा गीला), खंखार उससे भरे कपड़े आदि का अस्वाध्याय नहीं माना जाता है।
9. शुष्क रज, शोणित का अस्वाध्याय मानना चाहिए। फँसी, फोड़े, रक्त, मवाद आदि का अस्वाध्याय मानना। फोड़ा-फुसी सूख गये हों तो अस्वाध्याय नहीं मानना। स्वयं के शरीर में फोड़ा-फुसी आदि हों और उनमें से रक्त, मवाद आदि आ रहे हों तो कपड़े की पट्टी लगा लेने पर भी स्वयं को स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।

जिज्ञासा - अशुचि-सम्बन्धी अस्वाध्याय में क्या विशेषता है?
समाधान - सौ हाथ के भीतर मल, कलेवर आदि अशुभ पदार्थ पड़े हों, तो जब तक वे दिखाई दें अथवा उनकी दुर्गन्ध आये तब तक अस्वाध्याय मानना चाहिए। अशुचि दिखने, दुर्गन्ध आने पर आगम के मूल पाठों के साथ ही भक्तामर, कल्याणमन्दिर, महावीराष्टक आदि संस्कृत-प्राकृत भाषा के स्तोत्र भी नहीं पढ़ने चाहिए। स्वयं के शरीर में फोड़ा-फुसी, रक्त-मवाद आदि आ रहे हों तो स्तोत्र नहीं पढ़ना, हिन्दी रूपान्तरण आदि पढ़े एवं गाये जा सकते हैं। आगम आज्ञा नहीं होने से तथा दैवीय बाधा, छलना, विघ्न आदि की सम्भावना होने से आगम पाठ तथा संस्कृत-प्राकृत के स्तोत्रों का निषेध किया जाता है।

जिज्ञासा - श्मशान भूमि सम्बन्धी अस्वाध्याय किस प्रकार होता है?
समाधान - श्मशान भूमि के चारों ओर सौ हाथ के भीतर जब तक वहाँ रहे तब तक आगम पाठ एवं स्तोत्रों की अस्वाध्याय मानी जाती है। श्मशान भूमि के निकट भी अनेक व्यन्तर देवी-देवताओं की विघ्न-बाधा की सम्भावना रहती है।

जिज्ञासा - चन्द्रग्रहण-सूर्यग्रहण में अस्वाध्याय मानने का क्या कारण है?
समाधान - चन्द्र-सूर्यग्रहण के काल में भी दैवीय बाधा की सम्भावना बनी रहती है, इसलिए अस्वाध्याय मानी जाती है। जिस क्षेत्र में चन्द्र-सूर्य ग्रहण दिखाई दे, वहीं पर अस्वाध्याय माना जाता है। चन्द्रग्रहण आंशिक (खण्ड ग्रास) होने पर आठ प्रहर तक तथा पूर्ण (खग्रास) होने पर बारह प्रहर तक अस्वाध्याय मानी जाती है।
सूर्यग्रहण आंशिक होने पर बारह प्रहर तथा पूर्ण होने पर सोलह प्रहर तक अस्वाध्याय मानी जाती है। चन्द्रग्रहण-सूर्यग्रहण में ग्रहण प्रारम्भ होने से ही अस्वाध्याय प्रारम्भ हो जाती है तथा ग्रहण पूर्ण होने के पश्चात् आठ, बारह अथवा सोलह प्रहर तक अस्वाध्याय मानने की परम्परा है।

जिज्ञासा - चन्द्र-सूर्यग्रहण सम्बन्धी अस्वाध्याय को औदारिक सम्बन्धी क्यों माना?
समाधान - यद्यपि चन्द्र-सूर्य के देवता वैक्रिय शरीर वाले होते हैं, किन्तु उनके विमान औदारिक पुद्गलों से बने हुए होते हैं तथा ग्रहण का प्रभाव विमानों पर विशेष रूप से पड़ता है, इसलिए चन्द्र-सूर्यग्रहण को औदारिक सम्बन्धी अस्वाध्याय में माना जाता है।

जिज्ञासा - पतन सम्बन्धी अस्वाध्याय क्यों माना गया है?
समाधान - जिस देश अथवा राज्य में निवास कर रहे हैं, वहाँ के प्रमुख प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति, राज्यपाल, मुख्यमन्त्री आदि की मृत्यु हो जाने पर यदि उस क्षेत्र के वातावरण में विक्षोभ हो, उत्तेजना हो, विवाद की अथवा व्यवहार बिगड़ने की सम्भावना हो तो प्रवचन आदि सामूहिक धर्मकथा रूप स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। यदि वातावरण शान्त हो, सामान्य हो, वहाँ के लोग प्रवचनादि करने में कोई बाधा नहीं समझते हों तो प्रवचनादि भी किये जा सकते हैं। धीमे स्वर में स्वयं स्वाध्याय करे तो बाधा नहीं समझी जाती है।

जिज्ञासा - राजव्युद्ग्रह अस्वाध्याय से क्या तात्पर्य समझना चाहिए?
समाधान - दो या अनेक देश के राजाओं में, सेनाओं में युद्ध वगैरह चल रहा हो, ठाकुर, सामन्त आदि में लड़ाई चल रही हो तो युद्ध भूमि के आस-पास जब तक वातावरण में विक्षोभ रहे, लोग भयाक्रान्त रहे तब तक प्रवचन रूप स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। प्रवचन खुशी, उत्साह, उमंग का प्रसंग माना जाता है अत: युद्धादि के वातावरण में सामूहिक धर्मकथा रूप स्वाध्याय से बचना ठीक रहता है। यदि लोग भयभीत नहीं हों तो प्रवचन आदि कर सकते हैं। स्वयं के स्वाध्याय करने में बाधा नहीं है।

जिज्ञासा - उपाश्रय में औदारिक शरीर-सम्बन्धी अस्वाध्याय कब तक रहता है?
समाधान - उपाश्रय (स्थानक) की सीमा में तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय अथवा मनुष्य का जब तक शव पड़ा रहे तब तक आगम पाठों का तथा प्राकृत-संस्कृत भाषा में रचित स्तोत्रों का अस्वाध्याय माना जाता है। औदारिक शरीर सम्बन्धी दसों अस्वाध्याय के पीछे आगम आज्ञा की अनुपालना तथा व्यन्तर देवादि कृत छलना की सम्भावना, लोकोपवाद, लोकहानि आदि कारण मुख्य रूप से रहे हुए हैं।

जिज्ञासा - कौन-कौन सी पूर्णिमा एवं प्रतिपदा को अस्वाध्याय माना जाता है?
समाधान - ठाणांग सूत्र स्थान 4 के द्वितीय उद्देशक के सूत्र संख्या 256 में निम्नांकित पूर्णिमा तथा प्रतिपदा को अस्वाध्याय माना जाता है - 1. आषाढ़ी पूर्णिमा तथा इसके पश्चात् आने वाली श्रावण की प्रतिपदा। 2. आसोज मास की पूर्णिमा तथा इसके पश्चात् आने वाली कार्तिक की प्रतिपदा। 3. कार्तिक मास की पूर्णिमा तथा इसके पश्चात् आने वाली मार्गशीर्ष की प्रतिपदा। 4. चैत्र मास की पूर्णिमा तथा इसके पश्चात् आने वाली वैशाख की प्रतिपदा। पूर्णिमा को पूर्णिमा तथा प्रतिपदा को प्रतिपदा के नाम से जाना जाता है।

जिज्ञासा - पूर्णिमा और प्रतिपदा को कब अस्वाध्याय मानना चाहिए?
समाधान- 1. चौदस, पूर्णिमा और प्रतिपदा तीनों अलग-अलग तिथि होने पर यदि पक्खी चौदस की हो तो पक्खी प्रतिक्रमण से 48 घण्टे तक अस्वाध्याय (चौदस की रात, पूर्णिमा और प्रतिपदा को सायं प्रतिक्रमण तक) मानना चाहिए।
2. दो चौदस होने पर दूसरी चौदस एवं पूर्णिमा को अस्वाध्याय मानना।
3. दो पूर्णिमा होने पर दोनों पूर्णिमा को अस्वाध्याय मानना।
4. पूर्णिमा और प्रतिपदा शामिल होने पर चौदस, पूर्णिमा और प्रतिपदा को अस्वाध्याय मानना।
5. एक पूर्णिमा तथा दो प्रतिपदा होने पर पूर्णिमा और प्रथम प्रतिपदा को अस्वाध्याय मानना।
6. चौदसपूर्णिमा शामिल होने पर पूर्णिमा और प्रथम प्रतिपदा को अस्वाध्याय मानना।
उपर्युक्त सभी विकल्पों में 48 घण्टे अर्थात् 16 प्रहर तक अस्वाध्याय मानना चाहिए।

जिज्ञासा - चार पूर्णिमा-प्रतिपदा को अस्वाध्याय मानने का क्या कारण है?
समाधान - भगवान महावीर के समय इन्द्र महोत्सव, स्कन्द महोत्सव, यक्ष महोत्सव और भूत महोत्सव ये चार महोत्सव जन-साधारण में प्रचलित थे। इन उत्सवों में सम्मिलित होने वाले लोग मदिरापान करके नाचते-कूदते हुए अपनी परम्परा के अनुसार इन्द्रादि की पूजा आदि करते थे। उत्सव के दूसरे दिन प्रतिपदा को अपने मित्रादि को बुलाते और मदिरापान पूर्वक भोजन आदि करते-कराते थे।

इन महाप्रतिपदाओं के दिन स्वाध्याय करने के निषेध का प्रमुख कारण यह है कि महोत्सव में सम्मिलित लोग समीपवर्ती साधु-साध्वियों को स्वाध्याय करते अर्थात् जोर-जोर से शास्त्र वाचन आदि करते देखकर कुपित हो सकते हैं और मदिरा पान से उन्मत्त होने के कारण उपद्रव भी कर सकते हैं। अतः यही श्रेष्ठ है कि इन दिनों में साधु-साध्वी मौनपूर्वक ही अपने धर्म-कार्यों को सम्पन्न करें।

दूसरा कारण यह भी बताया कि जहाँ समीप में उन्मत्त बने जनसाधारण का जोर-शोर से शोर-गुल हो रहा हो, वहाँ पर साधु-साध्वी एकाग्रता पूर्वक शास्त्र की वाचना आदि ग्रहण नहीं कर सकते हैं।

अनुयोग प्रवर्तक श्रद्धेय श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' ने चरणानुयोग के पृष्ठ संख्या 64 पर अस्वाध्याय के दो कारण इस प्रकार बतलाये हैं-1. मिथ्यादृष्टि देव की छलना से बचने हेतु, 2. इन दिनों विकृति वाला आहार अधिक मिलता है, इससे स्वाध्याय में मन एकाग्र नहीं रहता।

जिज्ञासा - क्या वर्तमान में भी ये महोत्सव मनाये जाते हैं?
समाधान - वर्तमान में भी अनेकों क्षेत्रों में लोक व्यवहार में ये उत्सव मनाये जाते हैं। जैसे-आषाढ़ी पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में, कार्तिक पूर्णिमा को कार्तिकेय स्वामी के रूप में पुष्कर में मेला लगता है, आसोज की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा के रूप में तथा चैत्र की पूर्णिमा को हनुमान जयन्ती आदि के रूप में मनाते हैं। अनेक स्थानों में मदिरापान के साथ ही पशु बलि आदि भी दी जाती है, अत: इन दिवसों में अस्वाध्याय मानना ही उचित है।

जिज्ञासा - किन-किन सन्ध्याओं में कब-कब अस्वाध्याय माना जाता है?
समाधान - ठाणांग सूत्र के चौथे ठाणे के दूसरे उद्देशक के सूत्र संख्या 257 एवं 258 में निम्नलिखित सन्ध्याओं में अस्वाध्याय माना गया है - 1.सूर्योदय, 2. सूर्यास्त, 3. मध्याह्न, 4. मध्यरात्रि। इन चारों सन्ध्याओं में एक-एक मुहूर्त तक अस्वाध्याय माना जाता है।

जिज्ञासा - चारों सन्ध्याओं में एक-एक मुहूर्त तक अस्वाध्याय कब मानना?
समाधान - 1. सूर्योदय के 36 मिनिट पहले तथा 12 मिनिट बाद तक। 2. सूर्यास्त के 12 मिनिट पहले तथा 36 मिनिट बाद तक। 3. दिवस का मध्य भाग अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त तक के समय में चार प्रहर होते हैं, उन चार में से दो प्रहर बीतने के 24 मिनिट पहले तथा 24 मिनिट बाद तक। 4. सूर्यास्त से सूर्योदय तक के समय अर्थात् रात्रि का मध्य भाग। रात्रि के दो प्रहर बीतने के 24 मिनिट पहले तथा 24 मिनिट बाद तक अस्वाध्याय मानना चाहिए।

जिज्ञासा - सूर्योदय के 36 मिनिट पहले तथा 12 मिनिट बाद तक और सूर्यास्त के 12 मिनिट पहले तथा 36 मिनिट बाद तक अस्वाध्याय मानने का क्या कारण है?
समाधान - दस आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के भेदों में एक भेद है दिग्दाह अर्थात् जब तक किसी दिशा में ललाई दिखाई दे, दिशा जब तक रक्तवर्ण की हो तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। सूर्योदय के 36 मिनिट पहले तथा सूर्योदय के 12 मिनिट बाद तक ललाई रहती है। इसी प्रकार सूर्यास्त होने के 12 मिनिट पहले से लेकर सूर्यास्त के 36 मिनिट तक ललाई (लालिमा) रहती है, अत: अस्वाध्याय माना जाता है।

वृद्ध परम्परा से भी ऐसा सुना जाता है कि इन चार सन्ध्याओं में व्यन्तर देवीदेवताओं का गमनागमन विशेष रहता है। अशुद्ध उच्चारण, अशुचि का विवेक आदि न रहने से देवी-देवताओं के कुपित होने की सम्भावना रहती है। प्राकृत भाषा को देववाणी भी कहा गया है। अत: उसमें विवेक, सावधानी नहीं होने पर देव छलना हो सकती है, इसलिए भी इनमें अस्वाध्याय माना जाता है।

देवसिक व रात्रिक प्रतिक्रमण करके साधक वर्ग 36 मिनिट के अस्वाध्याय काल का सदुपयोग कर लेते हैं। इससे अप्रत्यक्ष रूप से यह भी समझा जा सकता है कि साधक वर्ग अपने दिवस एवं रात्रि सम्बन्धी पापों की आलोचना रूप प्रतिक्रमण यदि व्यक्तिश: करे तो लगभग 36 मिनिट में पूरा हो जाता है। प्रतिक्रमण का कार्य अस्वाध्याय काल में किया जाता है, अत: इसे अर्थात् आवश्यक सूत्र को नोकालिक नो-उत्कालिक कहा जाता है।

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