चार अनुयोग
आर्यरक्षित के पूर्ववर्ती आचार्य आर्य वज्र के समय तक अनुयोगों का पृथक्करण नहीं हुआ था। उस समय एक सूत्र की व्याख्या रूप एक अनुयोग प्रयुक्त किए जाने पर भी प्रत्येक सूत्र में चरणानुयोग आदि चारों अनुयोगों का अर्थ कहा जाता था। यह तथ्य स्वयं भद्रबाहु ने आवश्यकसूत्र की नियुक्ति में स्पष्ट किया है। जिनभद्रगणि ने विशेषावश्यकभाष्य में तथा मलधारी हेमचन्द्र ने उसकी वृत्ति में इस तथ्य को पुष्ट किया है। आर्यरक्षित ने आचार्य आर्यवज्र से ही सूत्र के अर्थ का अध्ययन करके अनुयोगों का पृथकरण किया था। आर्यरक्षित के शिष्य थे - दुर्बलिकापुष्यमित्र। आर्यरक्षित ने जब दुर्बलिकापुष्यमित्र को श्रुत एवं अर्थ का ज्ञान कराते समय कठिनाई का अनुभव किया तथा भावी पुरुषों को मति, मेधा एवं धारणा की दृष्टि से हीन समझा तो उन्होंने अनुयोगों एवं नयों का पृथकरण कर दिया।
आचार्य आर्यरक्षित ने जिन चार अनुयोगों में श्रुत का विभाजन किया उन चार अनुयोगों का कथन आचार्य भद्रबाहु ने इस प्रकार किया है अनुयोग चार प्रकार का है-(१) कालिकश्रुत, (२) ऋषिभाषित, (३) सूर्यप्रज्ञप्ति और (४) समस्त दृष्टिवाद।
आचारांग आदि ग्यारह अंगसूत्रों का अध्ययन काल-ग्रहण आदि विधि से किया जाता है इसलिए इन्हें कालिक कहा जाता है। कालिकसूत्रों को चरणकरणानुयोग भी कहा गया, क्योंकि इनमें धर्मकथा आदि अन्य अनुयोगों के होते हुए भी प्राधान्य चरणकरणानुयोग का है। ऋषिभाषित एवं उत्तराध्ययनसूत्र में नमि-कपिल आदि महर्षियों के धर्माख्यानकों का कथन होने से ये धर्मकथानुयोग कहे गए। सूर्यप्रज्ञप्ति में चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र आदि की विचरण गति का प्रतिपादन मुख्य है इसलिए यह गणितानुयोग है। दृष्टिवाद नामक बारहवें अंगसूत्र में चालना - प्रत्यवस्थान आदि के द्वारा जीव आदि द्रव्यों का ही प्रतिपादन किया जाता है, इसलिए वह द्रव्यानुयोग है। आचार्य भद्रबाहु ने महाकल्पसूत्र एवं शेष छेदसूत्रों का समावेश चरणकरणानुयोग में किया है, क्योंकि ये भी कालिकसूत्र है। इस प्रकार भद्रबाहु ने आर्यरक्षित के अनुसार चार अनुयोगों का निम्नांकित विभाजन प्रस्तुत किया है
(१) चरणकरणानुयोग-कालिकश्रुत (ग्यारह अंगसूत्र, महाकल्पसूत्र एवं शेष छेदसूत्र)
(२) धर्मकथानुयोग-ऋषिभाषित (उत्तराध्ययनसूत्र भी)
(३) गणितानुयोग-सूर्यप्रज्ञप्ति
(४) द्रव्यानुयोग-दृष्टिवाद
चार अनुयोगों के इन नामों का विशेषावश्यकभाष्य के रचयिता जिनभद्रगणि ने स्पष्ट रूप से निम्नांकित गाथा में उल्लेख किया है
“भण्णंतऽणुओगा चरण-धम्म-संखाण-दव्वाणं। "
अर्थात् (१) चरणानुयोग, (२) धर्मकथानुयोग, (३) संख्यानानुयोग (गणितानुयोग) और (४) द्रव्यानुयोग ये चार अनुयोग कहे गए है। श्वेताम्बर जैन परम्परा में अनुयोगों का यही क्रम मान्य है।
दिगम्बर परम्परा में अनुयोगों के नाम भिन्न है तथा उनके नाम द्रव्यसंग्रह टीका एवं पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति के अनुसार इस प्रकार हैं - (१) प्रथमानुयोग, (२) चरणानुयोग, (३) करणानुयोग और (४) द्रव्यानुयोग। प्रथमानुयोग में तिरेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र का वर्णन होता है। अर्थात यह एक प्रकार से श्वेताम्बर परम्परा में मान्य धर्मकथानुयोग की श्रेणी में आता है। चरणानुयोग में उपासकाध्ययन आदि के श्रावक धर्म, तथा आचाराराधन आदि के यति धर्म को मुख्य रूप से सम्मिलित किया गया है। करणानुयोग में त्रिलोकसार आदि के गणितीय विषय का समावेश होता है। श्वेताम्बर परम्परा में इसे गणितानुयोग कहा गया है। द्रव्यानुयोग में जीवादि षड्गव्यों के वर्णन की प्रधानता होती है तथा जीवादि के शुद्धाशुद्ध रूप का विचार किया जाता है। इस प्रकार विषय-वस्तु एवं नामों की दृष्टि से दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा में कोई विशेष अन्तर नहीं है। क्रम में अन्तर अवश्य है। दिगम्बर परम्परा में प्रथमानुयोग किवा धर्मकथानुयोग को चरणानुयोग के पूर्व रखा गया है तथा श्वेताम्बर परम्परा में धर्मकथानुयोग के पूर्व चरणकरणानुयोग को स्थान दिया गया है।
अनुयोगों के उपर्युक्त विभाजन में एक विशेष उल्लेखनीय तथ्य यह है कि भद्रबाहु (चौथी शती ई. पू.) ने जहाँ अंगसूत्रादि आगमों को चार अनुयोगों में विभक्त करने का निर्देश किया है वहाँ बृहद्व्यसंग्रह के टीकाकार ब्रह्मदेव (१६वीं शती) ने सूत्रों की विषय-वस्तु को अनुयोग-विभाजन में अलग से भी महत्त्व दिया है। जैसे श्रावकधर्म एवं यतिधर्म का वर्णन करने वाले सूत्रों को उन्होंने चरणानुयोग में सम्मिलित किया है, वैसे ही भद्रबाहू ने कालिकसूत्रों को चरणकरणानुयोग में रखा है। प्रथमानुयोग अथवा धर्मकयानुयोग में दिगम्बर परम्परा में तिरेसठ शलाका पुरुषों का वर्णन करने वाले पुराणों को स्थान दिया गया है वहाँ श्वेताम्बर परम्परा में ऋषिभाषित, उत्तराध्ययनसूत्र जैसे आगम को धर्मकथानुयोग कहा है। श्वेताम्बर परम्परा में चरणानुयोग को चरणकरणानुयोग कहा है एवं गणितानुयोग की अलग से गणना की गयी है, जबकि दिगम्बर परम्परा में करणानुयोग के अन्तर्गत गणितानुयोग का समावेश होता है।
आर्यरक्षित ने जहाँ श्वेताम्बरों को मान्य समस्त आगमों (विशेषतः अंगसूत्र, उपांगसूत्र, छेदसूत्र एवं मूलसूत्र) का चार अनुयोगों में विभाजन किया है वहाँ स्थानकवासी उपाध्याय श्री कन्हैयालाल जी महाराज ने श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन परम्परा को मान्य ३२ आगमों की विषय-वस्तु का ही चार अनुयोगों में विभाजन एवं व्यवस्थापन किया है। जिन ३२ आगमों को उपाध्यायश्री ने आधार बनाया है, वे इस प्रकार हैं
ग्यारह अंग आगम - (१) आचारांग, (२) सूत्रकृतांग, (३) स्थानांग, (४) समवायांग, (५) भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति), (६) ज्ञाताधर्मकया, (७) उपासकदशा, (८) अंतकृद्दशा, (९) अनुत्तरोपपातिक, (१०) प्रश्नव्याकरण, (११) विपाकसूत्र।
बारह उपांग आगम - (१) औपपातिक, (२) राजप्रश्नीय, (३) जीवाजीवाभिगम, (४) प्रज्ञापना, (५) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, (६) चन्द्रप्रज्ञप्ति, (७) सूर्यप्रज्ञप्ति, (८) निरयावलिया, (९) कल्पावतंसिका,
(१०) पुष्पिका, (११) पुष्पचूलिका, (१२) वृष्णिदशा।
चार मूलसूत्र - (१) उत्तराध्ययन, (२) दशवेकालिक, (३) नन्दीसूत्र, (४) अनुयोगद्वारसूत्र।
चार छेदसूत्र - (१) दशाश्रुतस्कन्ध, (२) बृहत्कल्पसूत्र, (३) व्यवहारसूत्र, (४) निशीथसूत्र। बत्तीसवा-आवश्यकसूत्र। (११ + १२ + ४ + ४ + १ = ३२)
विशेषावश्यकमाष्य में एक प्रश्न उठाया गया कि आर्यरक्षितसूरि की परम्परा में गोष्ठामाहिल को वादविजयी होने पर हुए मिथ्यात्थ के उदय के कारण सातवा निन्हव माना गया, तो अनुयोग एवं नय का निरूपण करने वाले आर्यरक्षित को निन्हव क्यों नहीं कहा गया। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए जिनभद्रगणि ने कहा कि आर्यरक्षित ने नय एवं अनुयोगों का निरूपण प्रवचन के हितार्थ ही किया था, उन्होंने यह कार्य मिध्यात्वभावना से एवं मिथ्याभिनिवेश से नहीं किया था। यदि मिथ्याभिनिवेश से जिनोक्त पद की कोई अवहेलना करता है तो वह बहुरत आदि सात निन्हव के समान निन्हव कहलाता है। उपाध्यायप्रवर ने भी अनुयोग-व्यवस्थापन का कार्य प्रवचन-हितार्थ ही किया है, मिथ्यात्वभावना से एवं मिथ्याभिनिवेश से नहीं किया है, अतः ये निन्हव नहीं, अपितु जिनवाणी के उपकारक है।
लेखक डॉ. धर्मचन्द जैन