सिद्ध होने की रीति

मध्यलोक में, अढ़ाई द्वीप में, 15 कर्मभूमियों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य ही सिद्ध होते हैं। औदारिक, तैजस् और कार्मण शरीर का सर्वथा त्याग करके, आत्मा को सिद्धि प्राप्त होती है।

सिद्ध होने की रीति

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सिद्ध होने की रीति

मध्यलोक में, अढ़ाई द्वीप में, 15 कर्मभूमियों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य ही सिद्ध होते हैं। औदारिक, तैजस् और कार्मण शरीर का सर्वथा त्याग करके, आत्मा को सिद्धि प्राप्त होती है। आत्मा जब कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त होता है तो अपने स्वभाव से ही उसकी ऊर्ध्वगति होती है। जैसे-ऐरण्ड का फल फटने से उसके भीतर का बीज ऊपर की ओर उछलता है, उसी प्रकार जीव शरीर और कर्म का बन्धन हटने पर ऊपर की ओर गति करके लोक के अग्रभाग तक पहुँचता है। अथवा जैसे मिट्टी के लेप से लिप्त तुम्बा लेप के हटने से ही जल के अग्रभाग पर आकर ठहरता है, उसी प्रकार कर्म-बन्धन टूटने से जीव ऊर्ध्वगति करके लोक के अग्रभाग तक पहुँचता है। सिद्ध जीव की गति विग्रह रहित (बिना मोड़ वाली) होती है और लोकान तक पहुँचने में उसे सिर्फ एक समय लगता है।

सिद्ध जीव लोक के अग्रभाग में क्यों ठहर जाता है? आगे अलोक में क्यों नहीं जाता? इसका उत्तर यह है कि आगे धर्मास्तिकाय नहीं है। धर्मास्तिकाय गति में सहायक होता है, अतएव जहाँ तक धर्मास्तिकाय है, वहीं तक जीव की गति होती है। धर्मास्तिकाय के अभाव में आगे अलोकाकाश में गति नहीं होती है।

संसार-अवस्था में कार्मण वर्गणा के पुद्गलों के साथ आत्मा के प्रदेश, क्षीरनीर की तरह मिले रहते हैं। सिद्ध अवस्था प्राप्त होने पर कर्मप्रदेश भिन्न हो जाते हैं और केवल आत्मप्रदेश ही रह जाते हैं और वे सघन हो जाते हैं। इस कारण भवस्थ शरीर से तीसरे भाग कम (दो तिहाई भाग), आत्मप्रदेशों की अवगाहना सिद्ध दशा में रह जाती है। उदाहरणार्थ-500 धनुष की अवगाहना वाले शरीर को त्याग कर कोई जीव सिद्ध हुआ है तो उसकी अवगाहना वहाँ 333 धनुष और 32 अंगुल की होगी। जो जीव सात हाथ के शरीर को त्यागकर सिद्ध हुए हैं, उनकी अवगाहना वहाँ 4 हाथ और 16 अंगुल की है। जो जीव दो हाथ की अवगाहना वाले शरीर को त्यागकर सिद्ध हुए हैं, उनकी एक हाथ और आठ अंगुल की अवगाहना होगी। एक धनुष में चार हाथ होते हैं और एक हाथ में 24 अंगुल होते हैं।

स्वाध्याय शिक्षा पुस्तक से साभार

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