सिद्ध स्वरूप
आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पाँचवें अध्याय के छठे उद्देशक में सिद्धों का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है
शुद्ध आत्मा (सिद्ध) का वर्णन करने में कोई शब्द समर्थ नहीं है, कोई भी कल्पना वहाँ तक पहुँचती नहीं है। मति (बुद्धि) भी वहाँ प्रवेश नहीं करती। केवल सम्पूर्ण ज्ञानमय आत्मा ही वहाँ है।
सिद्ध दीर्घ (लम्बे) नहीं, हस्व (छोटे) नहीं, वृत्त (गोलाकार) नहीं, त्रिकोण नहीं, चौकोर नहीं, मण्डलाकार (चूड़ी की तरह) नहीं, लम्बे नहीं, काले नहीं, नीले नहीं, लाल नहीं, पीले नहीं, शुक्ल नहीं, सुगन्धवान नहीं, दुर्गन्धवान नहीं, तिक्त नहीं, कटुक नहीं, कषैले नहीं, खट्टे नहीं, मीठे नहीं, कठोर नहीं, कोमल नहीं, गुरु (भारी) नहीं, लघु नहीं, शीत नहीं, उष्ण नहीं, चिकने नहीं, रुखे नहीं। स्त्री नहीं, पुरुष नहीं, नपुंसक नहीं, केवल परिज्ञान रूप हैं, ज्ञानमय हैं। उनके लिए कोई उपमा नहीं दी जा सकती। वे अरूपी-अलक्ष्य हैं। उनके लिए किसी पद का प्रयोग नहीं किया जा सकता। वे शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श रूप नहीं हैं।
इस प्रकार समस्त पौद्गलिक गुणों और पर्यायों से अतीत, शब्दों द्वारा अनिर्वचनीय सत्-चित् आनन्दमय सिद्ध स्वरूप हैं।