सिद्ध भगवान के 15 भेद

बन्धे हुए अष्टकर्म रूप ईन्धन को जिन्होंने भस्म कर दिया है, वे सिद्ध हैं। जो ऐसे स्थान में पधार (गमन कर) चुके हैं, जहाँ से कदापि लौटकर नहीं आते हैं, वे सिद्ध हैं।

सिद्ध भगवान के 15 भेद

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सिद्ध शब्द के वृत्तिकार ने 6 निर्वचनार्थ किये हैं -

1, बन्धे हुए (सित) अष्टकर्म रूप ईन्धन को जिन्होंने भस्म कर दिया है, वे सिद्ध हैं।
2. जो ऐसे स्थान में पधार (गमन कर) चुके हैं, जहाँ से कदापि लौटकर नहीं आते हैं, वे सिद्ध हैं।
3. जो सिद्ध-कृतकृत्य हो चुके हैं।
4. जो संसार को सम्यक उपदेश देकर संसार के लिए मंगल रूप हो चुके हैं।
5, जो सिद्ध-नित्य हो चुके हैं, शाश्वत स्थान को प्राप्त कर चुके हैं।
6. जिनके गुणसमूह सिद्ध-प्रसिद्ध हो चुके हैं।

सिद्ध भगवान के 15 भेद

जैन धर्म सिद्ध (परमात्मा) दशा को प्राप्त करने में उदारवादी दृष्टिकोण रखता है। परमात्म प्राप्ति में किसी भी प्रकार के धर्म, सम्प्रदाय, देश, वेष, जाति, वर्ण, मान्यता आदि को बाधक नहीं मानता है। जैन धर्म परमात्मा प्राप्ति का मुख्य कारण कषाय मुक्ति व भवोपग्राही कर्ममुक्ति को कहता है। जैनधर्म के इस अनेकान्त उदारवादी दृष्टिकोण के अनुसार कोई भी मानव, कषाय-राग-द्वेष-मोह को समाप्त करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो सकता है। इस अपेक्षा से ही सिद्ध दशा प्राप्त करने के 15 भेद निम्नानुसार वर्णित हैं

(1) तीर्थङ्कर सिद्ध - जो तीर्थङ्कर पदवी भोगकर सिद्ध हुए हैं। जैसे - भगवान आदिनाथ, भगवान महावीर आदि।
(2) अतीर्थङ्कर सिद्ध - सामान्य केवली होकर जो सिद्ध हुए हैं। जैसे-कपिल केवली, बाहुबली आदि।
(3) तीर्थ सिद्ध - साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना होने के बाद जो सिद्ध हुए हैं। जैसे-जम्बू स्वामी आदि।
(4) अतीर्थ सिद्ध - तीर्थ की स्थापना से पहले तथा तीर्थ का विच्छेद हो जाने के बाद जो सिद्ध हुए हैं। जैसे - मरुदेवी माता।
(5) स्वयं बुद्ध सिद्ध - जातिस्मरण आदि ज्ञान से अपने पूर्वभवों को जानकर गुरु के बिना, स्वयं दीक्षा धारण करके जो सिद्ध हुए हैं। जैसे-सभी तीर्थकर।
(6) प्रत्येक बुद्ध सिद्ध - वृक्ष, वृषभ, श्मशान, मेघ, वियोग या रोग आदि का निमित्त पाकर अनित्य आदि भावना से प्रेरित होकर, स्वयं दीक्षा लेकर जो सिद्ध हुए हैं। जैसे-नमिराजर्षि आदि।
(7) बुद्ध बोधित सिद्ध - आचार्य आदि से बोध प्राप्त करके, दीक्षा धारण करके जो सिद्ध हुए हैं। जैसे-मृगावती आदि।
(8) स्त्रीलिंग सिद्ध - वेद-विकार को क्षय करके, स्त्री के शरीर से जो सिद्ध हुए हैं। जैसे-चन्दनबाला आदि।
(9) पुरुषलिंग सिद्ध - जो पुरुष-शरीर से सिद्ध हुए हैं। जैसे भरत चक्रवर्ती आदि।
(10) नपुंसकलिंग सिद्ध - जो नपुंसक के शरीर से सिद्ध हुए हैं। जैसे - गांगेय अणगार।
(11) स्वलिंग सिद्ध - रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि साधु का वेष धारण करके जो सिद्ध हुए हैं। जैसे-गौतम स्वामी आदि।
(12) अन्यलिंग सिद्ध - जैन वेष के सिवाय परिव्राजक, तापस आदि किसी अन्यलिंगी को दुष्कर तपश्चरण आदि से विभंग ज्ञान की प्राप्ति हो, जिससे जिनशासन का अवलोकन करके अनुरागी बनने पर उसका अज्ञान मिट जाए और अवधिज्ञानी बनकर परिणाम शुद्ध हो जाने पर केवल ज्ञान प्राप्त हो जाए। आयु कम होने से लिंग बदले बिना ही सिद्ध हो जाए वह अन्यलिंगसिद्ध कहलाता है। जैसे-वल्कलचीरी।
(13) गृहस्थलिंग सिद्ध - गृहस्थ के वेष में धर्माचरण करते-करते परिणाम विशुद्धि होने पर केवलज्ञान प्राप्त कर ले और स्वल्प आयु होने के कारण लिंग बदले बिना ही सिद्ध हो जाए, वह गृहस्थलिंग सिद्ध कहलाता है। जैसे-मरुदेवी माता।
(14) एक सिद्ध - एक समय में अकेला-एक ही सिद्ध होने वाला।
(15) अनेक सिद्ध - एक समय में दो आदि 108 पर्यन्त सिद्ध हों, वे अनेक सिद्ध कहलाते हैं।

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