जैन साधना में तप - अनशन
नव तत्त्वों में कर्मों को क्षय करने वाला तत्व निर्जरा है। आत्मा से कर्म-वर्गणाओं का पृथक होना निर्जरा कहलाता है। निर्जरा के सामान्यतः बारह भेद है। ये ही बारह भेद तपस्या के माने जाते है. इनका क्रमशः नामोल्लेख इस प्रकार है - (१) अनशन, (२) अनोदरी, (३) भिक्षाचर्या, (४) रसपरित्याग, (५) कायक्लेश, (७) प्रति संलीनता (७) प्रायश्चित, (4) विनय, (8) वैयावृत्य, (१०) स्वाध्याय, (११) ध्यान और (१२) व्युत्सर्ग।
इनमें से प्रथम छह बाह्य तप तथा अन्तिम छह आभ्यंतर तप के भेद है। तपों के बारह भेद आत्मा को मोक्ष तक पहुंचाने में आगम सम्मत सीढ़ियां है बाह्य तपों में आत्मा जब शरीर को समर्पित कर देती है तो वह इतनी निर्मल बन जाती है कि वह आभ्यंतर तप को सहज ही स्वीकार कर लेती है।
जैनागमों में तप को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उत्तराध्ययन सूत्र में लिखा है करोड़ों भवों में संचित कर्म तपस्या से नष्ट किये जाते है। तप के इन बारह भेदों पर जैन साहित्य में विपुल वर्णन उपलब्ध है।
आहार चार प्रकार के माने गए है
१. अशन - अन्न से निर्मित वस्तुएं, सभी पकवान आदि ।
२. पान - पानी।
३. खादिम - दाख, बादाम आदि मूखा मेवा।
४. स्वादिम - चुर्ण, चटनी आदि मुखवास की चीजें।
इन चार प्रकार के आहार का त्याग करना अथवा पान (पानी) को छोड़कर शेष तीन आहारों का त्याग करना अनशन कहलाता है।
अनशन के मुख्य दो भेद है - इत्वरिक और यावत्कथिक।
इत्वरिक - अल्पकाल के लिये जो उपवास किया जाता है उसे इत्वरिक अनशन कहते है. इसके निम्न चोदह भेद हैं-
१. चतुर्थ भक्त, २, षष्ठ भक्त, ३, अष्टम भक्त, ४. दशम भक्त, ५. द्वादश भक्त, ६, चतुर्दश भक्त, ७. षोडश भक्त, ६, अर्धमासिक, ९, मासिक, १०. द्विमासिक, ११. त्रिमासिक, १२. चातुर्मासिक, १३. पंचमासिक, १४, षाण्मासिक।
यावात्कथिक - जो अनशन अल्प समय के लिये नहीं किया जाता है उसे यावात्कथिक अनशन कहते है - इसके तीन भेद हैं - (१) पादपोपगमन, (२) भक्त प्रत्याख्यान, (२) इंगित मरण।
पादपोपगमन - पादप का अर्थ वृक्ष है, जिस प्रकार कटा हुआ वृक्ष अथवा वृक्ष की कटी हुई डाली हिलती नहीं, उसी प्रकार संथारा करके जिस स्थान पर जिस रूप में एक बाद लेट जाय फिर उसी जगह उसी रूप में लेटे रहने पर मृत्यु को प्राप्त हो जाना पादपोपगमन मरण है। इसमें हाथ-पैर हिलाने का आगार भी नहीं होता है। इसमें चारो आहार का त्याग करके अपने शरीर के किसी भी अंग को किचित मात्र भी न हिलाते हुए निश्चय रूप से संथारा करना पादपोपगमन कहलाता है। पादपोपगमन के दो भेद हैं - (१) व्याघातिम (२) निर्व्याघातिम।
सिंह, व्याघ, अग्नि आदि का उपद्रव होने पर जो संथारा किया जाता है वह व्याघातिम पादपोपगमन संथारा कहलाता है। तीर्थकर महावीर के दर्शनार्थ जाते हुए सुदर्शन ने अर्जुनमाली के शरीर में रहे यक्ष से आते उपसर्ग को जान यही अनशन स्वीकार किया था।
जो किसी भी प्रकार के उपद्रव के बिना स्वेच्छा से संथारा किया जाता है वह निर्व्याघातिम पादपोपगमन संथारा कहलाता है।
भक्त प्रत्याख्यान - यावज्जीवन तीन या चारों आहारों का त्याग कर जो संथारा किया जाता है उसे भक्त प्रत्याख्यान अनशन कहते हैं इसी को भक्त परिज्ञा भी कहते हैं।
इंगित मरण - यावज्जीवन पर्यन्त चारों प्रकार के आहार का त्याग कर निश्चित स्थान में हिलने-ढूलने का आगार रखकर जो संथारा किया जाता है, उसे इंगित मरण अनशन कहते हैं, इसे इङ्गिनीमरण भी कहते है । इंगित मरण संथारा करने वाला अपने स्थान को छोड़कर कहीं नहीं जाता है एक ही स्थान पर रहते हुए हाथ-पैर आदि हिलाने का उसे आगार रहता है वह दूसरों से सेवा भी नहीं करवाता है।