अरिहन्त के चौंतीस अतिशय
सर्व साधारण में जो विशेषता नहीं पाई जाती, उसे अतिशय कहते हैं। अरिहन्त में ऐसी चौंतीस असाधारण विशेषताएँ होती हैं। यहाँ अरिहन्त के अतिशयों को बताने का अर्थ तीर्थकर भगवान के अतिशयों को बताना लेना चाहिए। क्योंकि सामान्य केवली भगवान में ये चौंतीस अतिशय संभव नहीं हैं। ये विशेषताएं या अतिशय इस प्रकार हैं।
जन्मातिशय-अरिहन्त भगवान के वे अतिशय जो जन्म से ही होते हैं, वे जन्मातिशय कहलाते हैं
1. उनका शरीर निरामय-रोगादि से रहित, निरुपलेप-मल रहित अर्थात् उनको मलादि अशुचि का लेप नहीं लगता है।
2. उनका रक्त और मांस गौ दूध से भी अधिक उज्ज्वल-धबल होता है।
3. उनका श्वासोच्छवास पद्य-कमल से भी अधिक सुगन्धित होता है।
4. उनका आहार और निहार चर्मचक्षु वालों को दिखायी नहीं देता है।
विशेष-तीर्थकर भगवान के सर्व अंगोपांग सुन्दर व शोभनिक होते हैं। इसी प्रकार वे छद्यस्थों की दृष्टि में साधु के वेश सहित ही दिखायी देते हैं किन्तु वस्त्र रहित नग्न नहीं दिखायी देते हैं। क्योंकि निहार (दीर्घ शंका) करते समय थोड़े समय के लिए भी जब नग्न दिखायी नहीं देते हैं तो जीवनपर्यंत सारे दिन नग्न दिखायी देते हों, यह संभव नहीं है।
देवकृतातिशय-अरिहन्त भगवान के देवों द्वारा किये गये अतिशयों को देवकृतातिशय कहते हैं
5. उनके मस्तक आदि समस्त शरीर के बाल मर्यादा से अधिक (बुरे लगे ऐसे) नहीं बढ़ते हैं।
6. जब भगवान चलते हैं तो आकाश में गरणाट शब्द करता हुआ धर्म चक्र चलता है।
7. भगवान के सिर पर लम्बी-लम्बी मोतियों की झालर वाले, एक के ऊपर दूसरा और दूसरे के ऊपर तीसरा इस प्रकार तीन छत्र आकाश में दिखाई देते हैं।
8. गौ के दूध और कमल के तन्तुओं से भी अधिक अत्यन्त उज्ज्वल बाल वाले तथा रत्नजड़ित डण्डी वाले चमर भगवान के दोनों तरफ ढूलाए जाते हुए दिखाई देते हैं।
9. स्फटिक मणि के समान निर्मल देदीप्यमान, सिंह के स्कन्ध के आकार वाले रत्नों से जड़े हुए, अन्धकार को नष्ट करने वाले, पादपीठिकायुक्त सिंहासन पर भगवान विराजे हुए हैं, ऐसा दिखाई देता है।
10. बहुत ऊँची रत्नजड़ित स्तम्भ वाली और अनेक छोटी-छोटी ध्वजाओं के परिवार से वेष्टित इन्द्रध्वजा भगवान के आगे दिखाई देती है।
11. अनेक शाखाओं और प्रशाखाओं से युक्त पत्र, पुष्प, फल एवं सुगन्धित भगवान से बारह गुना ऊँचा अशोक वृक्ष भगवान पर छाया करता हुआ दिखाई देता है।
12. शरद् ऋतु के जाज्वल्यमान सूर्य से भी अधिक तेज वाला, अन्धकार का नाशक प्रभामंडल भगवान के पृष्ठ भाग में दिखाई देता है।
13. भगवान जहाँ-जहाँ विहार करते हैं वहाँ की जमीन गड्ढे या टीले आदि से रहित होकर समतल और रमणीय हो जाती है।
14. रास्ते मे बिखरे हुए बबूल आदि के काँटे उल्टे हो जाते हैं, जिससे पैर में चुभ न सकें।
15. शीतकाल में उष्ण और उष्णकाल में शीत वाला सुहावना मौसम बन जाता है।
16. भगवान के चारों ओर एक-एक योजन तक मन्द-मन्द शीतल और सुगंधित वायु चलती है, जिससे सब अशुचियाँ दूर चली जाती हैं।
17. बारीक-बारीक सुगंधित अचित्त जल की वृष्टि एक-एक योजन में होती है, जिससे धूल दब जाती है।
18. भगवान के चारों ओर देवताओं द्वारा विक्रिया से बनाये हुए अचित्त पाँच रंगों के पुष्पों की घुटनों प्रमाण वृष्टि होती है। उन पुष्पों का टेंट (डंठल) नीचे की तरफ और मुख ऊपर की ओर होता है।
19. अमनोज्ञ (अच्छे न लगने वाले) शब्द, वर्ण, रस, गंध और स्पर्श का नाश होता है।
20. मनोज्ञ शब्द, वर्ण, रस, गंध और स्पर्श का उद्भव होता है।
कर्मक्षयातिशय-जो अतिशय भगवान के घाति कर्मों के क्षय होने से प्रकट होते हैं, वे कर्म क्षयातिशय कहलाते हैं।
21. भगवान के चारों ओर एक-एक योजन में स्थित परिषद् धर्मोपदेश सुनती है और वह धर्मोपदेश सभी को प्रिय लगता है।
विशेष-उनकी वाणी एक योजन तक सुनाई देती है इसका अर्थ यह है कि परिषद् लम्बी-चौड़ी फैली हुई हो तो वह वाणी एक योजन तक भी सुनाई दे सकती है किन्तु यदि वे धीमे स्वर में बोले तो एक योजन तक सुनाई दे, यह आवश्यक नहीं है।
22. भगवान का धर्मोपदेश अर्धमागधी भाषा में होता है।
23. आर्य देश और अनार्य देश के मनुष्य, द्विपद (पक्षी), चतुष्पद (पशु) और अपद (सर्प आदि) सभी भगवान की भाषा को समझ जाते हैं।
विशेष-तीर्थकर भगवान की वाणी सब प्राणियों को अपनी अपनी भाषा में परिणत हो जाती है यह उस वाणी की विशेषता है जैसे कि कहा है
देवाः दैवीं नरा: नारी, शबराश्चापि शाबरीम्।
तिर्यञ्चोऽपि तैरिश्ची, मेनिरे भगवद् गिरम्।।
अर्थात् भगवान की वाणी देवता देव भाषा में, मनुष्य मनुष्यों की भाषा में, शबर अर्थात् अनार्य लोग अनार्य भाषा में और तिर्यञ्च तिर्यञ्चों की भाषा में समझते हैं यह वाणी की विशेषता है। भगवान तो अर्द्धमागधी भाषा में फरमाते हैं।
24. भगवान का दर्शन करते ही और उपदेश सुनते ही जाति-वैर (जैसे सिंह और बकरी का, कुत्ते और बिल्ली का) तथा भवान्तर (पिछले जन्मों) का वैर शांत हो जाता है।
25. भगवान का प्रभावपूर्ण और अतिशय सौम्य स्वरुप देखते ही अपने-अपने मत का अभिमान रखने वाले अन्य दर्शनवादी अभिमान को त्याग कर नम्र बन जाते हैं।
26. भगवान के पास वादी वाद करने के लिए आते तो हैं किन्तु वे वादी वाद करने में असमर्थ हो जाते हैं।
27. भगवान के चारों तरफ 25-25 योजन तक ईति-भीति आदि का उपद्रव नहीं होता है। ईति सात प्रकार की बतलायी गई है
अतिवृष्टिरनावृष्टिः, मूषकाः शलभाः खगाः।
स्वचक्रं परचक्रं च, सप्तैता: ईतयः समृताः।।
अधिक वर्षा होना, जिससे कि फसल नष्ट हो जाय। अनावृष्टि-वर्षा का सर्वथा अभाव जिससे कि धान्य पैदा न हो और दुष्काल सा पड़ जाय। चूहों की तथा टीड-पतंगों की और पक्षियों की अधिक उत्पत्ति हो जिससे कि वे पैदा हुई खेती को नुकसान पहुंचा दे। अपने देश के राजा भय-अपनी प्रजा को लूट ले, दुःखित करे आदि। दूसरे राजा का भय-वह राजा अपने देश पर कब आक्रमण कर दे। भगवान जहाँ-जहाँ विचरते हैं वहाँ ये ईतियाँ नहीं होती हैं।
28. महामारी बीमारियाँ हैजा आदि का उपद्रव नहीं होता है।
29. स्वचक्र स्वदेश के राजा और सेना का उपद्रव नहीं होता है।
30. परचक्र पर-देश के राजा का और सेना का उपद्रव नहीं होता है।
31. अतिवृष्टि अर्थात् बहुत अधिक वर्षा नहीं होती है।
32. अनावृष्टि (कम वर्षा या वर्षा का अभाव) नहीं होता है।
33. दुर्भिक्ष-दुष्काल नहीं पड़ता है।
34. जिस देश में पहले से ईति-भीति, महामारी, स्व-परचक्र का भय आदि उपद्रव हो, वहाँ भगवान का पदार्पण होते ही तत्काल उपद्रव दूर हो जाते हैं।
इस प्रकार चार जन्मातिशय, सोलह देवकृतातिशय और चौदह कर्मक्षयातिशय मिलकर चौंतीस अतिशय भगवान के होते हैं। इन चौंतीस अतिशयों में से प्रथम 4 अतिशय जन्म के होते हैं। 12वाँ और 21 से 34वें तक के 15 अतिशय केवलज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् होते हैं। 5 से 11 तथा 13 से 20 तक के 15 अतिशय देवों के किये हुए होते हैं।इन अतिशयधारी अरिहन्त भगवान की स्तुति करने से हमारे दर्शन की विशुद्धि होती है।