वाणी के पेंतीस अतिशय
अरिहन्त भगवान अतिशय युक्त महापुरुष होते हैं। उनमें ज्ञानातिशय, वचनातिशय, पूजातिशय और अपाय अपगमातिशय मुख्य रूप से पाये जाते हैं। वचनातिशय के अन्तर्गत समवायांग सूत्र में सत्य वचन के 35 अतिशय कहे गये हैं। मूल सूत्र में इन पैंतीस वचन के गुणों का उल्लेख नहीं है, केवल संख्या का निर्देश मात्र है। लेकिन ग्रन्थों से इन वचन के अतिशयों का निरूपण किया गया है। यहाँ अरिहन्त के वचनातिशय का अर्थ तीर्थङ्कर का वचनातिशय ही मुख्य रूप से समझना चाहिए।
तीर्थकर भगवान कृतकृत्य होने पर भी, तीर्थकर नाम-कर्म के उदय से निरीह-निष्काम भाव से, जगत् के जीवों का कल्याण करने के लिए धर्मोपदेश देते हैं। उनकी वाणी में जो-जो गुण होते हैं, वे इस प्रकार हैं-
1. भगवान संस्कारयुक्त वचनों का प्रयोग करते हैं।
2. भगवान ऐसे उच्चस्वर (बुलन्द आवाज) से बोलते हैं कि एक-एक योजन तक चारों तरफ बैठी हुई परिषद् (श्रोतागण) भली-भाँति श्रवण कर लेती है।
3. रे, तू इत्यादि तुच्छता से रहित सरल और शिष्ट बचन बोलते हैं।
4. मेघगर्जना के समान भगवान की वाणी सूत्र और अर्थ से गंभीर होती है। उच्चारण और तत्त्व दोनों दृष्टियों से उनकी वाणी का रहस्य बहुत गहन होता है।
5. जैसे गुफा में और शिखरबंद प्रासाद में बोलने से प्रतिध्वनि उठती है, उसी प्रकार भगवान की वाणी की भी प्रतिध्वनि उठती है।
6. भगवान के वचन श्रोताओं को घृत और शहद के समान स्निग्ध और मधुर लगते हैं।
7. भगवान के वचन कर्ण प्रिय होने से श्रोताओं को उसी प्रकार मुग्ध और तल्लीन बना देते हैं, जैसे पुंगी का शब्द सुनकर सर्प और वीणा का शब्द सुनकर मृग मुग्ध और तल्लीन हो जाता है।
उक्त सात वचन के गुणों में शब्द की प्रधानता है, इन अतिशयों को शब्द सौन्दर्य की अपेक्षा से जानना चाहिए।
8. भगवान के वचन सूत्र रुप होते हैं। अर्थात् उनमें शब्द थोड़े और अर्थ बहुत होता है।
9. भगवान के वचनों में परस्पर विरोध नहीं होता। जैसे अहिंसा परमो धर्मः कहकर फिर यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः अर्थात् पशु यज्ञ के लिए ही बने हैं, ऐसे पूर्वापरविरोधी वचन भगवान नहीं बोलते हैं।
10. भगवान एक प्रस्तुत प्रकरण को पूर्ण करके फिर दूसरे प्रकरण को प्रारम्भ करते हैं। एक बात पूरी ही नहीं की और बीच में ही दूसरी बात कह दी, इस तरह नहीं करते हैं। उनका भाषण सिलसिलेवार होता है।
11. भगवान ऐसी स्पष्टता से उपदेश देते हैं कि श्रोताओं को किंचित् भी संशय उत्पन्न नहीं होता है।
12. बड़े से बड़े पंडित भी भगवान के वचन में किंचित् मात्र भी दोष नहीं निकाल सकते हैं, क्योंकि ये वचन सर्वज्ञता से परिपुष्ट हैं।
13. भगवान के वचन सुनते ही श्रोताओं का मन एकाग्र हो जाता है। उनके वचन सबको मनोज्ञ लगते हैं।
14. बड़ी विचक्षणता के साथ देश-काल के अनुसार बोलते हैं।
15. सार्थक और संबद्ध वचनों से अर्थ का विस्तार तो कर लेते हैं किन्तु व्यर्थ और अनावश्यक बातें कह कर समय पूरा नहीं करते।
16. जीव आदि नौ पदार्थों के स्वरूप को प्रकाशित करने वाले सार-सार वचन बोलते हैं, निस्सार वचन नहीं बोलते।
17. सांसारिक क्रिया की बातें कहना आवश्यक हो तो, उन्हें संक्षेप में पूरी कर देते हैं अर्थात् ऐसे पदों को संक्षेप में समाप्त करके आगे के पद कहते हैं।
18. धर्मकथा ऐसे खुलासे के साथ कहते हैं कि छोटा बच्चा भी समझ जाये।
19. अपनी श्लाघा (प्रशंसा) और दूसरों की निन्दा नहीं करते। पाप की निन्दा करते हैं परन्तु पापी की निन्दा नहीं करते।
20. भगवान की वाणी दूध और मिश्री से भी अधिक मधुर होती है, इस कारण श्रोता धर्मोपदेश छोड़कर जाना नहीं चाहते हैं।
21. किसी की गुप्त बात प्रकट करने वाले मर्मभेदी वचन नहीं बोलते हैं।
22. किसी की योग्यता से अधिक गुण-वर्णन करके खुशामद नहीं करते, किन्तु वास्तविक योग्यता के अनुसार गुणों का कथन करते हैं।
23. भगवान ऐसा सार्थक धर्मोपदेश देते हैं, जिससे उपकार हो और आत्मार्थ की सिद्धि हो।
24. अर्थ को छिन्न-भिन्न करके तुच्छ नहीं बनाते हैं।
25. व्याकरण के नियमानुसार शुद्ध शब्दों का प्रयोग करते हैं।
26. अधिक जोर से भी नहीं, अधिक धीरे भी नहीं और शीघ्रतापूर्वक भी नहीं, किन्तु मध्यम रौति से उचित घोष से वचन बोलते हैं।
27. प्रभु की वाणी सुनकर श्रोता ऐसे प्रभावित होते हैं और बोल उठते हैं कि अहा। धन्य है प्रभु की उपदेश देने की शक्ति। धन्य है प्रभु की प्रवचन शैली।
28. भगवान हर्षयुक्त और प्रभावपूर्ण शैली से उपदेश करते हैं, जिससे सुनने वालों को जीवन्त उपदेश लगता है।
29. विभ्रम, विक्षेप, रोष, भय, लोभ आदि दोषों से तथा मन के अन्य दोषों से रहित वचन भगवान के होते हैं।
30. सुनने वाला अपने मन में जो प्रश्न सोचकर आता है, उसका बिना पूछे ही समाधान हो जाता है।
31. भगवान परस्पर सापेक्ष वचन ही कहते हैं और जो कहते हैं वह श्रोताओं के दिल में जम जाता है।
32. अर्थ, पद, वर्ण, वाक्य-सब स्फुट कहते हैं-आपस में भेल-संभेल करके नहीं कहते हैं।
33. भगवान ऐसे सात्विक वचन कहते हैं, जो ओजस्वी और प्रभावशाली हों।
34. प्रस्तुत अर्थ की सिद्धि होने पर ही दूसरे अर्थ को आरम्भ करते हैं-अर्थात् एक कथन को दृढ़ करके ही दूसरा कथन करते हैं।
35. धर्मोपदेश देते-देते कितना ही समय क्यों न बीत जाए, भगवान कभी थकते नहीं हैं, किन्तु ज्यों के त्यों बिना व्यवधान के व्याख्यान करते हैं।
वचन के 8वें गुण से 35वें गुण तक, 28 वचनातिशय भगवान की वाणी के अर्थ गांभीर्य का प्रतिपादन करने वाले हैं। तीर्थकर भगवान तो इन वचन के 35 ही गुणों के धारक होते है, सामान्य केवली भगवान भी इनमें से अनेक वचन के गुणों के धारक होते हैं।