चौदह पूर्वो की रचना

अतिविशाल चौदह पूर्वो की रचना आचारांगादि द्वादशांगी के पूर्व की गई, अत: इन्हें पूर्वो के नाम से अभिहित किया गया। चौदह पूर्वो की रचना के पश्चात् अंग शास्त्रों की रचना की गई।

चौदह पूर्वो की रचना

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चौदह पूर्वो की रचना

साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना के अनन्तर भगवान महावीर ने इन्द्रभूति गौतम को, अग्निभूति आदि 10 प्रमुख शिष्यों के साथ उत्पाद (उप्पन्नेइवा), व्यय (विगमेइवा) और ध्रौव्य (धुवेइवा) - इस त्रिपदी का उपदेश देकर उन्हें संसार के समस्त तत्वों के उत्पन्न, नष्ट एवं स्थिर रहने के स्वभाव तथा स्वरूप का सम्यक् रूपेण सम्पूर्ण ज्ञान करवाया।

त्रिपदी का सार रूप में अर्थ बताते हुए भगवान महावीर ने फरमाया:

उत्पादः किसी द्रव्य द्वारा अपने मूल स्वरूप का परित्याग किये बिना दूसरे रूपान्तर का ग्रहण कर लेना उस द्रव्य का 'उत्पाद' स्वभाव कहा जाता है।

व्यय: किसी द्रव्य द्वारा रूपान्तर करते समय पूर्वभावपूर्वावस्था का परित्याग करना द्रव्य का 'व्यय' स्वभाव कहा गया है।

ध्रौव्य : उत्पाद और व्यय स्वभाव की परिस्थितियों में भी पदार्थ का अपने मूल गुणधर्म और स्वभाव में बने रहना उस द्रव्य का ध्रौव्य स्वभाव कहलाता है।

उदाहरण के रूप में स्वर्ण का एक पिण्ड है। उस स्वर्णपिण्ड को गलाकर उससे कंगण का निर्माण किया गया तो कंगण का उत्पाद हुआ और स्वर्णपिण्ड का व्यय हुआ। दोनों ही परिस्थितियों में स्वर्ण द्रव्य की विद्यमानता उस स्वर्ण का ध्रौव्य है।

इस प्रकार आत्मा, मनुष्य, देव या तिर्यंच रूप में उत्पन्न होता है तो वह आत्मा का मनुष्य, देवादि रूप में उत्पन्न होने की अपेक्षा से उत्पाद और देव, तिर्यंचादि पूर्व शरीर के त्याग की अपेक्षा से व्यय है। दोनों अवस्थाओं में आत्मगुण की विद्यमान के कारण ध्रौव्य समझना चाहिये। उत्पाद और व्यय में वस्तु के पर्याय की प्रधानता है, जबकि ध्रौव्य अवस्था में द्रव्य के मूलरूप की प्रधानता है।

तीर्थंकर महावीर की अतिशय युक्त दिव्यवाणी के प्रभाव से तथा पूर्वजन्म में कृत उत्कट साधना के परिणाम स्वरूप गौतम आदि ग्यारहों सद्यः प्रव्रजित विद्वानों के श्रुतज्ञानावरण कर्म का तत्क्षण विशिष्ट क्षयोपशम हुआ और वे उसी समय समग्र श्रुतज्ञान सागर के विशिष्ट वेत्ता बन गये। उन्होंने सर्व प्रथम चौदह पूर्वो की रचना की, जो इस प्रकार हैं:
उत्पादपूर्व
अग्रायणीपूर्व
वीर्यप्रवादपूर्व
अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व
ज्ञानप्रवादपूर्व
सत्यप्रवादपूर्व
आत्मप्रवादपूर्व
कर्मप्रवादपूर्व
प्रत्याख्यानपूर्व
विद्यानुप्रवादपूर्व
कल्याणवादपूर्व
प्राणवायपूर्व
क्रियावादपूर्व
लोकबिन्दुसारपूर्व

अतिविशाल चौदह पूर्वो की रचना आचारांगादि द्वादशांगी के पूर्व की गई, अत: इन्हें पूर्वो के नाम से अभिहित किया गया। चौदह पूर्वो की रचना के पश्चात् अंग शास्त्रों की रचना की गई।

पुस्तक जैन इतिहास के प्रसंग भाग ९ से साभार

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