गुप्ति-मनोगुप्ति, वचन गुप्ति,काय गुप्ति
मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्ति को रोककर आत्म-गुणों की सम्यक् प्रकार से रक्षा करने को 'गुप्ति' कहते हैं। गुप्ति तीन प्रकार की होती है- मनो गुप्ति, वचन गुप्ति और काय गुप्ति।
मनोगुप्ति
मन की अशुभ प्रवृत्ति को रोकना 'मनोगुप्ति' है। मनोगुप्ति चार प्रकार की होती है :- 1. सत्या 2. मृषा 3. सत्यामृषा तथा 4. असत्यामृषा।
सरंभ - दूसरों को हानि पहुँचाने का विचार करना। जैसे - मैं ऐसा ध्यान करूँगा जिससे वह मर जाये।
समारंभ - दूसरों को हानि पहुँचाने का मानसिक प्रयत्न करना।
आरंभ - दूसरों को मन के तीर्व-अशुभ भावों से हानि पहुँचाना।
मनोगुप्ति के चार भेद - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव।
द्रव्य से - चार प्रकार की मनोगुप्ति को संरंभ, समारंभ तथा आरंभ में बुरे अध्यवसाय रूप नहीं प्रवताये।
क्षेत्र से - सर्व-क्षेत्र में।
काल से - जीवन-पर्यन्त।
भाव से - उपयोग-सहित।
वचन गुप्ति
वचन की अशुभ (वचन बोलने रूप) प्रवृत्ति को रोकना 'वचन गुप्ति' है। वचन गुप्ति चार प्रकार की होती है - 1. सत्या 2.मृषा 3. सत्यामृषा और 4. असत्यामृषा।
संरंभ - दूसरों को मारने में समर्थ ऐसे संकल्प को सूचित करने वाला शब्द बोलना।
समारंभ - दूसरों को पीड़ा उत्पन्न करने वाला मन्त्रादि गुनना।
आरंभ- प्राणियों का अत्यन्त क्लेशपूर्वक नाश करने में समर्थ मन्त्रादि गुनना।
वचन गुप्ति के चार भेद - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव।
द्रव्य से - चार प्रकार की वचनगुप्ति को संरभ, समारंभ तथा आरंभ में बुरे अध्यवसाय रूप नहीं प्रवतार्वे।
क्षेत्र से- सर्व-क्षेत्र में।
काल से - जीवन-पर्यन्त।
भाव से- उपयोग-सहित।
काय गुप्ति
काया की अशुभ प्रवृत्तियों को रोकना 'काय गुप्ति' है। चलने, खड़े रहने, बैठने, सोने में तथा कारणवश ऊर्ध्वभूमिका, गड्डे आदि के उलाँघने में और इन्द्रियों के शब्दादि विषयों में प्रवृत्ति करता हुआ साधु काय गुप्ति करे।
1. संरंभ- यष्टि-मुष्टि आदि से ताड़ना करने के लिये तैयार होना।
2. समारंभ- दूसरों को परिताप (पीड़ा) करने हेतु लात वगैरह से प्रहार करना।
3. आरंभ- वध करने, जीवन रहित करने की क्रिया करना।
काय गुप्ति के चार भेद- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव।
1. द्रव्य से - काय गुप्ति को संरभ, समारंभ तथा आरंभ में बुरे अध्यवसाय रूप नहीं प्रवतार्वे।
2. क्षेत्र से - सर्व-क्षेत्र में।
3. काल से - जीवन-पर्यन्त।
4. भाव से - उपयोग-सहित।