आचार्य के बारे में क्या आप जानते हैं?
1. आगमों में आचार्य के लिए गणि, गणधर, स्थविर, सूरि, आर्य आदि शब्दों से उल्लेखित किया है।
2. गच्छाचार प्रकीर्णक में आचार्य को तीर्थंकर के समान बतलाया है। जैसा कि कहा है - तित्थयर समो सूरी।
3. आचार्य को निर्णय लेने में, निर्माण करने में, नियोजन करने में, निभाने में तथा निवेदन करने में निपुण होना आवश्यक है, तभी चतुर्विध संघ का सम्यक् संचालन होता है।
4. ठाणांग सूत्र के तीसरे ठाणे में आचार्य में ज्ञान ऋद्धि, दर्शन ऋद्धि और चारित्र ऋद्धि ये तीन ऋद्धियाँ बतलाई हैं।
5. आचार्य के मार्गदर्शन में साधु-साध्वी बाह्य प्रपंच से बचकर निज साधना में संलग्न होते हैं। समिति गुप्ति की साधना सही ढंग से पालन करने में आचार्य का दिशा-निर्देश एवं अनुशासन आवश्यक है।
6. जिसमें आगम का गहरा अर्थ बोध हो, जो जिनाज्ञा का रहस्य समझता हो, ज्ञानाचार और पंचाचारों के प्रति निष्ठा हो, जो चारित्र को महामूल्यवान रत्न की भांति सर्वाधिक महत्त्व देता हो वह साधु आचार्य बनने के योग्य होता है।
7. जिसमें नेतृत्व क्षमता हो, जो शरीर, मन आदि से सबल हो, प्रवचन कुशल और मेधावी हो, वैयावृत्य की भावना वाला हो, जिनशासन के प्रति पूर्णत: समर्पित हो वह साधु आचार्य बनने के लायक होता है।
8. आचार्य की आठ विशेषताएँ बतलाई हैं - 1. आचारवान होना, 2. आधारवान होना, 3. व्यवहारवान होना, 4. विपत्ति में भी संघ की रक्षा करना, 5. अपायदर्शी होना, 6. अवपीड़क, 7. अपरिस्रावी और 8. सम्यक् निर्णय लेना।
9. श्रमण निर्ग्रन्थों को आचार्य-उपाध्याय के नेतृत्व में तथा साध्वियों को आचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तिनी के नेश्राय में रहना आवश्यक है।
10, आचारांग सूत्र में आचार्य को एक ऐसे हुद (तालाब) से उपमित किया है जो प्रतिपूर्ण है, समभू भाग में स्थित है, उपशांत रज वाला है, संरक्षण कर रहा है और स्रोत के मध्य में विद्यमान हैं। आचार्य भी गुणों अथवा निर्मल ज्ञान से परिपूर्ण होता है। समभूमि अर्थात् समत्व परिणाम-धारा में स्थिर रहता है। मोहनीय कर्म का उपशमन करता है। जीवनिकायों की रक्षा करता हुआ सूत्र-अर्थ का दान व ग्रहण करता है। इस प्रकार से वह स्रोत के मध्य में स्थित होता है।
11. जो आचार्य चतुर्विध संघ की अग्लान भाव से सेवा करते हैं, शिष्य वर्ग को सूत्रार्थं पढ़ाते हुए अखेद भाव-अग्लान भाव से उनके संयम-पालन में सहयोगी बनते हैं, वे या तो उसी भव में, या दो भव में सिद्ध होते हैं, किन्तु तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते अर्थात् तीसरे भव में तो अवश्य ही सिद्ध होते हैं।
भगवती शतक 5 उद्देशक 6 में वर्णित इस कथन में जो दो अथवा तीन भव में सिद्ध होने की बात कही, उसका तात्पर्य तीन अथवा पाँच भव से लेना चाहिए। अर्थात् दो मनुष्य के भव तथा बीच में एक वैमानिक देवलोक का भव, इस प्रकार तीन भव कहने चाहिए। जहाँ तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करता उसमें भी बीच में दो भव वैमानिक के लेने चाहिए, इस प्रकार कुल पाँच भवों में उनकी मुक्ति निश्चित है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि ऊपर जो भवों की संख्या बतलाई वह मात्र मनुष्य भव की अपेक्षा से समझनी चाहिए। चूंकि वे आराधक होते हैं अत: बीच में वैमानिक के भव लेना आवश्यक है।
12. आचार्य चतुर्विध संघ की आस्था के केन्द्र होते हैं, अत: पदारोहण भी चतुर्विध संघ की सन्निधि में होता है। कोई भी व्यक्ति अपने आप आचार्य पद का धारक नहीं बन सकता, उसका मनोनयन उनके गुरु करते हैं तथा चतुर्विध संघ का सहकार-समर्थन आवश्यक होता है। आचार्य सम्पूर्ण संघ के अनुशास्ता होते हैं।
स्वाध्याय शिक्षा नवम्बर २०१८ से साभार