।। धणेण किं धम्मधुराहिगारे ? ।।
धर्मधुरा खींचने के लिए धन की क्या आवश्यकता है? वहॉं तो सदाचार ही आवश्यक है मनुष्य धन से धर्म अर्थात् परोपकार कर सकता है; परन्तु धर्म के लिए धन अनिवार्य नहीं है। साधु-सन्त गृहत्यागी होते हैं। उनके पास धन नहीं होता; फिर भी वे धर्मात्मा होते हैं। इतना ही क्यों ? वे धर्मप्रचारक होते हैं – धर्मोपदेशक होते हैं । तन-मन-जीवन को दूसरों की सेवा-सहायता में लगाना धर्म के लिए अनिवार्य हो सकता है, धन नहीं। कभी-कभी तो धन धर्म में बाधक बन जाता है। महात्मा ईसा को यहॉं तक कहना पड़ा था कि ऊँट का सुई के छेद में से निकलना सम्भव है; परन्तु धनवान का स्वर्ग के द्वार में से निकलना अर्थात् स्वर्ग पाना सम्भव नहीं। धन से मनुष्य में जो अहंकार उत्पन्न होता है, वह और गुणों को पहले ही नष्ट कर देता है। सद्गुणों के अभाव में जीवन का कल्याण किसी भी प्रकार से संभव नहीं है। धन दुधारी तलवार की तरह धर्म के लिए साधक भी हो सकता है और बाधक भी। असल में धर्म की साधना जगतकल्याण की विशुद्ध मनोवृत्ति पर निर्भर है, भले ही धन हो या न हो।
- उत्तराध्ययन सूत्र 14/17