|| जत्थ संका भवे तं तु, एवमेयं ति नो वए ||
जिस विषय में अपने को शंका हो, उस विषय में ‘यह ऐसी ही है’ ऐसी भाषा न बोलें शंका एक ऐसी मनोवृत्ति है, जो हमें अपने अल्पज्ञान या अज्ञान का भान कराती रहती है। अज्ञान के भान से हमें लज्जा आती है और एक प्रकार का मानसिक कष्ट होता है शास्त्रज्ञान के लिए जब हम आचार्यों या गुरुओं की उपासना करते हैं; तब भी उनके कठोर शब्दों का प्रहार हमें सहना पड़ता है। समाधान के लिए गुरुओं के सामने जिज्ञासा व्यक्त करते समय भी हमें संकोच का अनुभव होता है; क्यों कि उससे हमारे अभिमान को चोट पहुँचती है। हमारे साथी या सहपाठी भी – ‘‘अरे, यह इतनी-सी बात भी नहीं जानता?’’ – ऐसा मन ही मन सोचकर हमारे अज्ञान की हँसी उड़ाते हैं। साधक को ज्ञानसाधना के लिए यह सब शान्तिपूर्वक सहना पड़ता है; इसीलिए अज्ञान को भी एक परीषह माना गया है – इक्कीसवॉं परीषह। इस परीषह को जीतकर गुरुओं से अपनी समस्त शंकाओं का समाधान प्राप्त करने के बाद ही हमें दूसरों को उपदेश देना चाहिये| यदि पूरी जानकारी न हो – शंका हो तो न बोलें।
- दशवैकालिक सूत्र 7/6