शक्रस्तव (णमोत्थुणं) सूत्र
इस पाठ के द्वारा सिद्ध और अरिहंत देवों की भाव पूर्वक अनेक गुणों का वर्णन करते हुए उनकी स्तुति करना तथा उनके गुण हमारी आत्मा में भी प्रकट करना, मुख्य प्रयोजन है।
इस पाठ को 'शक्रस्तव' पाठ भी कहते हैं, क्योंकि प्रथम देवलोक के इन्द्र-शकेन्द्र भी तीर्थंकरों - अरिहन्तों की इसी पाठ से स्तुति करते हैं। इसका एक और नाम प्रणिपात सूत्र भी है। प्रणिपात का अर्थ - अत्यन्त विनम्रता एवं बहुमानपूर्वक अरिहन्त-सिद्ध की स्तुति करना है।
पहला 'णमोत्थु णं' सिद्ध भगवन्तों को दिया जाता है। दूसरा 'णमोत्थु णं' अरिहंतों को दिया जाता है।
नमस्कार में उपकार की प्रधानता होती है, जबकि स्तुति में गुणों की प्रधानता होती है। नवकार मन्त्र में जीवों पर उपकार की दृष्टि से पहले अरिहंतों को नमस्कार किया गया, किन्तु 'णमोत्थु णं' में शक्रेन्द्र महाराज ने आत्मिक गुणों में बड़े की दृष्टि से पहले सिद्धों को नमस्कार किया है।
णमोत्थु णं, अरिहंताणं, भगवंताणं ।1।
आइगराणं, तित्थयराणं, सयं-संबुद्धाणं ।2।
पुरिसुत्तणामं, पुरिस-सीहाणं, पुरिस-वर-पुंडरियाणं, पुरिस-वर गंधहत्थीणं ।3।
लोगुत्तमाणं, लोगं-नाहाणं, लोग-हियाणं-लोग-पईवाणं, लोग-पज्जोय-गराणं ।4।
अभय-दयाणं, चक्खु-दयाणं, मग्ग-दयाणं-सरण दयाणं, जीव-दयाणं, बोहि-दयाणं ।5।
धम्मं-दयाणं, धम्म-देसयाणं, धम्म-नायगाणं-धम्म-सारहीणं, धम्म-वर-चाउरंत-चक्कवट्टीणं ।6।
दीवो, ताणं, सरण-गइ-पइट्ठाणं, अपिडहय-वरनाण-दंसण-धराणं, वियट्ट-छउमाणं ।७।
जिणाणं-जावयाणं, तिण्णाणं-तारयाणं, बुद्धाणं-बोहयाणं, मुत्ताणं-मोयगाणं ।8।
सव्वन्नूणं-सव्वदरिसणं, सिव-मयल-मरुअ-मणंत-मक्खय-मव्वाबाह-मपुणरावित्ति,
सिद्धिगइ-नामधेयं ठाणं संपत्ताणं,*नमो जिणाणं, जियभयाणं ।9।
दूसरी बार नमोत्थुणं का पाठ बालने पर 'ठाणं संपत्ताणं' के स्थान पर 'ठाण' संपाविउकामाणं' बोलें। बाकी पाठ पहले के समान बोलें।