लोगस्स (तीर्थकर स्तुति) सूत्र
'लोगस्स' पाठ का दूसरा नाम ‘उत्कीर्तन सूत्र' और 'चतुर्विंशतिस्तव' है।
'लोगस्स' पाठ में भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। ये हमारे इष्टदेव हैं। इन्होंने अहिंसा और सत्य का मार्ग बताया है। इनकी भाव पूर्वक स्तुति करने से जीवन पवित्र और दिव्य बनता है।
लोगस्स उज्जोअगरे, धम्म तित्थयरे जिणे।
अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसंपि केवली ।।1।।
उसभमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमई च।
पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे।।2।।
सुविहिं च पुप्फदंत, सीअल सिज्जंस, वासुपुज्जं च।
विमलमणतं च जिणं, धम्म सतिं च वंदामि।।3।।
कुंथु अरं च मल्लिं, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च।
वंदामि रिट्टनेमि, पासं तह वद्धमाणं च ।।4।।
एवं मए अभिथुआ, विहूयरयमला पहीणजरमरणा।
चउवीसंपि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु।।5।।
कित्तिय वदिय महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा।
आरुग्ग बोहिलाभं, समाहिवरमुत्तमं दितु ।।6।।
चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा।
सागरवर गंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ।।7।।
लोगस्स = लोक में। उज्जोअगरे = प्रकाश करने वाले। धम्मतित्थयरे = धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले। जिणे = जीतने वाले (रागद्वेष को)। अरिहंते = अरिहंतों की। कित्तइस्सं = स्तुति करूँगा। चउवीसंपि = सभी चौबीस तीर्थंकरों की। केवली = केवल ज्ञानी। उसभं = ऋषभ (देवजी)। अजिअं - अजित (नाथजी) को। च = और। वंदे = वन्दना करता हूँ। संभव = संभव (नाथजी)। अभिणंदणं = अभिनन्दन (जी) को। सुमइं च = और सुमति (नाथजी) को। पउमप्पहं = पद्मप्रभजी। सुपास = सुपार्श्वनाथ जी । जिणं = जिनराज को। च = और। चंदप्पह = चन्दप्रभ जी को। वन्दे = वन्दना करता हूँ। सुविहिं = सुविधि (नाथजी) को। च = और। पुष्पदंतं = पुष्पदंतजी को। सीअलसिज्जंस - शीतलनाथजी, श्रेयांसनाथजी। वासुपूज्ज च = और वासुपूज्यजी को। विमलमणतं च जिणं - विमलनाथजी तथा अनन्तनाथजी जिनेश्वर को। धम्म संति च वंदामि = धर्मनाथ जी और शान्तिनाथजी को वन्दन करता हूँ। कुंथु अरं च = कुन्थुनाथजी और अरनाथजी को। मल्लिं वंदे = मल्लिनाथजी को वन्दन करता हूँ। मुणिसुव्वयं नमिजिणं च = मुनिसुव्रतजी और नमिनाथ जी को। वंदामि रिट्टनेमि = अरिष्टनेमि जी को वन्दना करता हूँ। पासं तह वद्धमाणं च = और पार्श्वनाथजी तथा वर्द्धमानजी को। एवं मए अभिथुआ = इस प्रकार मेरे द्वारा स्तुति किये गये। विहूय रयमला = कर्मरूपी रज मेल से रहित। पहीणजरमरणा = बुढ़ापा और मृत्यु से रहित। चउवीसंपि = चौबीसों ही। जिणवरा - जिनेश्वर। तित्थयरा = तीर्थंकर। मे = मुझ पर। पसीयंतु = प्रसन्न होवें। कित्तिय = वचनयोग से कीर्तित। वंदिय = काययोग से नमस्कृत। महिया = मनोयोग से वदित। जे ऐ लोगस्स उत्तमा सिद्धा = जो लोक में उत्तम हैं, वे सिद्ध। आरुग्ग = आरोग्य। बोहिलाभ = बोधिलाभ। समाहिवरमुत्तमं दिन्तु = उत्तम व श्रेष्ठ समाधि देवें। चंदेसु निम्मलयरा = चन्द्रों से अधिक निर्मल। आइच्चेसु अहियं = सूर्यों से अधिक। पयासयरा = प्रकाश करने वाले। सागरवर गंभीरा = महासमुद्र के समान गम्भीर। सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु = सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धि (मोक्ष) प्रदान करें।
इस पाठ में भगवान् ऋषभदेव से लेकर (वर्द्धमान) महावीर तक चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। वे हमारे इष्टदेव हैं। अहिंसा और सत्य का मार्ग बताने वाले हैं। वे हमारे परम आराध्य देव हैं। उनका स्मरण करना, उत्कीर्तन (उत्कृष्ट गुणगान) करना और जप करना, हम सब का कर्त्तव्य है।
भगवान का ध्यान करने से, भगवान् के नाम का जप करने से और उनके द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चलने से जीवन पवित्र एवं दिव्य बनता है। नवमें तीर्थंकर श्री सुविधिनाथजी का दूसरा नाम श्री पुष्पदन्तजी भी है।