कङ्खे गुणे जाव सरीरभेऊ
जब तक शरीरभंग (मृत्यु) न हो तब तक गुणाकांक्षा रहनी चाहिये जब तक शरीर नष्ट नहीं हो जाता अर्थात् मृत्यु नहीं हो जाती, तब तक हमें निरन्तर गुणों की कामना करते रहना चाहिये। विषयों की तो सभी प्राणी कामना करते रहते हैं; किंतु विवेकी व्यक्ति गुणों की कामना करते हैं। वे सभी सम्पर्क में आनेवाले व्यक्तियों से कुछ-न-कुछ सीखते रहते हैं| अच्छे गुणों का संग्रह करते हुए वे इतने गुणवान बन जाते हैं कि जगह-जगह उनका आदर किया जाता है| ख्याति गुणों से ही नहीं, दोषों से भी मिलती है| डाकू भी प्रसिद्ध होता है और महात्मा भी| अन्तर यही है कि डाकू कुख्यात होता है और महात्मा सुख्यात होता है| जो प्रशंसा मुँह से निकलती है, वह सच्ची नहीं होती| अपना उल्लू सीधा करने के लिए, स्वार्थी लोग भी झूठी प्रशंसा, जिसे चापलूसी या खुशामद कहते हैं, किया करते हैं| सच्ची प्रशंसा वह है, जो हृदय से निकलती है| गुणों के द्वारा ही ऐसी प्रशंसा प्राप्त की जा सकती है; इसलिए जीवन-भर गुणाकांक्षा रखनी चाहिये।
उत्तराध्ययन सूत्र 4/13