उत्तराध्ययन सूत्र 3-7

उत्तराध्ययन सूत्र 3/7 सांसारिक जीव क्रमशः शुद्ध होते हुए मनुष्यभव पाते हैं

उत्तराध्ययन सूत्र 3-7

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जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययन्ति मणुस्सयं   

सांसारिक जीव क्रमशः शुद्ध होते हुए मनुष्यभव पाते हैं जीव शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप विभिन्न योनियों में जन्म लेते हैं। ऐसी योनियों की संख्या शास्त्रों में चौरासी लाख बताई गयी है। मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ मानी गई है; क्योंकि यहीं से सिद्धपद की प्राप्ति हो सकती है – मोक्ष की साधना हो सकती है।   अन्य योनियों में भी तरतमता होती है। जीव ज्यों ज्यों शुभकर्मों द्वारा शुद्ध होता रहता है, त्यों-त्यों उसे उत योनि प्राप्त होती रहती है। भूल से अशुभ कर्मों का उपार्जन होने पर निम्न या नीच योनि में भी जन्म लेना पड़ सकता है। पहाड़ पर चढ़ते समय लगातार ऊँचाई नहीं मिलती । कहीं कहीं नीचे भी उतरना पड़ता है – गिरकर उठना और उठ-उठ कर चलना पड़ता है। यही बात विविध योनियों में जन्म लेने के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है।   यदि मनुष्य विवेकी बनकर अशुभ कर्मों से बचता हुआ लगातार शुभ कर्मों का ही उपार्जन करता रहे; तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस प्रकार होनेवाली क्रमशः अधिकाधिक आत्म-शुद्धि के द्वारा वह मनुष्य भव अवश्य प्राप्त करेगा।   

उत्तराध्ययन सूत्र 3/7

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