उत्तराध्ययन सूत्र
तीसरा अध्याय प्रथम गाथा
चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणिह जंतुणो ।
माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमंमि य वीरीयं ।।
इस संसार में प्राणियों के लिए चार परम अंग दुर्लभ हैं
1. मनुष्यत्व,
2. सद्धर्म का श्रवण,
3. श्रद्धा और
4. संयम में पुरुषार्थ ।
यह तो सभी धर्मों और दर्शनों ने माना है कि मनुष्य शरीर प्राप्त हुए बिना मोक्ष जन्म मरण से, कर्मों से, रागद्वेषादि से मुक्ति - नहीं हो सकती। इसी देह से इतनी उच्च साधना हो सकती है और आत्मा से परमात्मा बना जा सकता है। परन्तु मनुष्य देह को पाने के लिए पहले एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक की तथा मनुष्य गति और मनुष्य योनियों के सिवाय अन्य गतियों और योनियों तक की अनेक घाटियाँ पार करनी पड़ती हैं, बहुत लम्बी यात्रा करनी पड़ती है। कभी देवलोक, कभी नरक और कभी आसुरी योनि में मनुष्य कई जन्ममरण करता है। मनुष्य गति में भी कभी अत्यन्त भोगासक्त क्षत्रिय बनता है। कभी चाण्डाल और संस्कारहीन जातियों में उत्पन्न हो कर बोध ही नहीं पाता। अतः वह शरीर की भूमिका से ऊपर नहीं उठ पाता। तिर्यञ्चगति में तो एकेन्द्रिय से ले कर पंचेन्द्रिय तक आध्यात्मिक विकास की प्रथम किरण भी प्राप्त होनी कठिन है। निष्कर्ष यह है कि देव, धर्म की पूर्णतया आराधना नहीं कर सकते, नारक जीव सतत भीषण दुःखों से प्रताड़ित रहते हैं, अतः उनमें सद्धर्म-विवेक ही जागत नहीं होता। तिर्यञ्चगति में पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में कदाचित् क्वचित् पूर्व-जन्म संस्कार प्रेरित धर्माराधना होती है, किन्तु वह अपूर्ण होती है। वह उन्हें मोक्ष की मंजिल तक नहीं पहुंचा सकती। मनुष्य में धर्मविवेक जागृत हो सकता है, परन्तु अधिकांश मनुष्य विषय सुखों की मोहनिद्रा में ऐसे सोये रहते हैं कि वे सांसारिक कामभोगों के दलदल में फंस जाते हैं, अथवा साधनविहीन व्यक्ति कामभोगों की प्राप्ति की पिपासा में सारी जिदगी बिता कर इन परम दुर्लभ अंगों को पाने के अवसर खो देते हैं। उनकी पुनः पूनः दीर्घ संसारयात्रा चलती रहती है। कदाचित् पूर्वजन्मों के प्रबल पुनीत संस्कारों एवं कषायों की मन्दता के कारण, प्रकृति की भद्रता से, प्रकृति की विनीतता से, दयालुता-सदय-हृदयता से एवं अमत्सरता-परगुणसहिष्णुता से मनुष्यायु का बन्ध हो कर मनुष्यजन्म प्राप्त होता है। इसलिए सर्वप्रथम मनुष्यता प्राप्ति ही दुर्लभ बताई है।