उत्तराध्ययन सूत्र-तीसरा अध्याय अष्टम गाथा

मनुष्य-देह पा लेने पर भी धर्म का श्रवण दुर्लभ है, जिसे श्रवण कर जीव तप, क्षमा-सहिष्णुता और अहिंसा को अंगीकार करते हैं।

उत्तराध्ययन सूत्र-तीसरा अध्याय अष्टम गाथा

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उत्तराध्ययन सूत्र
तीसरा अध्याय अष्टम गाथा


मानुस्सं विग्गहं लद्धुं, सुई धम्मस्स दुल्लहा ।
जं सोच्चा पडिवज्जंति, तवं खंतिमहिंसयं ।।

मनुष्य-देह पा लेने पर भी धर्म का श्रवण दुर्लभ है, जिसे श्रवण कर जीव तप, क्षमा-सहिष्णुता और अहिंसा को अंगीकार करते हैं।

धर्मश्रवण का महत्व - धर्मश्रवण मिथ्या-त्वतिमिर का विनाशक, श्रद्धा रूप ज्योति का प्रकाशक, तत्त्व-प्रतत्त्व का विवेचक, कल्याण और पाप का भेद प्रदर्शक, अमृत-पान के समान और हृदय को आनन्दित करने वाला है । ऐसे श्रुत-चारित्र रूप धर्म का श्रवण मनुष्य को प्रबल पुण्य से मिलता है। धर्मश्रवण से ही व्यक्ति तप, क्षमा और अहिंसा आदि को स्वीकार करता है ।

तवं खंतिमहिंसयं : तीनों संग्राहक शब्द तप अनशन प्रादि १२ प्रकार के तप, संयम और इन्द्रिय निग्रह का, क्षान्ति - क्रोध विजय रूप क्षमा, कष्ट सहिष्णुता तथा उपलक्षण से मान आदि कषायों के विजय का तथा अहिंसा भाव -- उपलक्षण से मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन एवं परिग्रह से विरमणरूप व्रत का संग्राहक है।

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