आत्म-शुद्धि-सूत्र तस्स उत्तरी-करणेणं का पाठ
तस्सउत्तरी के पाठ से साधक कायोत्सर्ग करने की प्रतिज्ञा करता है, जिससे वह आत्मा को शरीर की आसक्ति से पृथक् कर (आत्मा को) कषायों से मुक्त कर सके। तस्स उत्तरी पाठ में 'अभग्गो' का अर्थ है- काउस्सग्ग खण्डित नहीं होना और अविराहिओ का अर्थ है- काउस्सग्ग भंग नहीं होना। काउस्सग्ग में सर्व विराधना न होना 'अभग्गो' तथा आंशिक विराधना न होना 'अविराहिओ' कहलाता है।
तस्स उत्तरी-करणेणं पायच्छित-करणेणं विसोही-करणेणं, विसल्ली-करणेणं, पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए, ठामि काउस्सग्गं। अन्नत्थ ऊससिएणं नीससिएणं खासिएणं-छीएणं, जंभाईएणं, उड्डुएणं वायनिस्सग्गेणं, भमलीए पित्तमुच्छाए, सुहुमेहिं अंगसंचालेहिं, सुहुमेहिं खेलसंचालेहिं, सुहुमेहिं दिट्ठिसंचालेहिं एवमाइएहिं आगारेहिं, अभग्गो अविराहियो हुज्ज मे काउसग्गो जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमोक्कारेणं न पारेमि, ताव कायं ठाणेणं मोणेणं, झाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि।।
तस्स = उस (अपनी आत्मा) को। उत्तरी करणेणं = उत्कृष्ट बनाने के लिए। पायच्छित्त = प्रायश्चित्त। करणेणं = करने के लिए। विसोहि करणेणं = विशेष शुद्धि करने के लिए। विसल्ली करणेणं = शल्य रहित करने के लिए। पावाणं कम्माणं = पाप कर्मों का। निग्घायणट्ठाए = नाश करने के लिए। ठामि - करता हूँ। काउस्सग्गं = कायोत्सर्ग। अन्नत्य = निम्न क्रियाओं को छोड़कर। ऊससिएणं = ऊँचे श्वास लेने से। नीससिएणं = श्वास छोड़ने से। खासिएणं = खाँसी आने से। छीएणं = छींक आने से। जंभाइएणं = जम्हाई आने से। उड्डुएणं = डकार आने से। वायनिसग्गेणं = अधो-वायु निकलने से। भमलीए = चक्कर आने से। पित्त = पित्त के कारण। मुच्छाए = मूर्छा आने से। सुहुमेहि = सूक्ष्म रूप में। अंग = अंग के। संचालेहिं = संचालन से। सुहुमेहिं खेल संचालेहिं = सूक्ष्म रूप में कफ के संचार होने से। सुहमेहिं दिट्ठि संचालहिं = सूक्ष्म रूप में दृष्टि संचार से अर्थात्-नेत्र फड़कने से। एवमाइएहिं आगारेहि = इस प्रकार आगारों से। अभग्गो = अखण्ड। अविराहिओ = अविराधित। हुज्ज मे काउस्सग्गो = मेरा कायोत्सर्ग हो। जाव = जब तक। अरिहंताणं = अरिहंत। भगवंताणं = भगवन्तों को। णमोक्कारेणं = नमस्कार करके। ण पारेमि = (कायोत्सर्ग को) नहीं पालू। ताव = तब तक। कार्य = शरीर को। ठाणेणं = स्थिर रख कर। मोणेणं = मौन रख कर। झाणेणं = मन को एकाग्र रख कर। अप्पाणं - अपनी आत्मा को। वोसिरामि = पापकारी कार्यों (कषाय आदि) से अलग करता हूँ।
इस पाठ से कायोत्सर्ग करने का संकल्प किया जाता है। इसी भावना से यह पाठ अमुक आगारों के साथ कायोत्सर्ग करने की प्रतिज्ञा का निर्देश करता है। कायोत्सर्ग, शरीर को स्थिर, वचन को मौन तथा मन को एकाग्र रखकर किया जाता है।