वओ अच्चेति जोव्वणं च
आयु बीत रही है और युवावस्था भी ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है, त्यों-त्यों हमारी आयु भी क्रमशः व्यतीत होती जाती है। जब से हमने जन्म लिया है आँखें खोली हैं, दुनिया देखी है; तभी से हमारी अवस्था एक एक क्षण घटती जा रही है। लोग समझते हैं कि हम बड़े हो रहे हैं; परन्तु वास्तविकता यह है कि वे छोटे हो रहे हैं। जितने दिन-रात बीतते जाते हैं; उतने निर्धारित आयु में से घटते जाते हैं। इस प्रकार आयुष्य प्रतिक्षण क्षीण से क्षीणतर होता जाता है। जब आयुष्य घट रहा है, तब यौवन कैसे कायम रह सकता है ? वह भी धीरे-धीरे समाप्त होता जाता है और अकस्मात् एक दिन बुढ़ापा आ घेरता है। ज्ञानी इस अनिवार्य स्थिति को पहले ही जान लेते हैं और बीतनेवाले प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करते हैं। वे धर्माचरण, सेवा, सहायता, परोपकार, सत्संगति, तीर्थयात्रा, शास्त्राध्ययन आदि के द्वारा अपने जीवन को अधिक से अधिक सफल बनाने का प्रयास करते हैं। अधर्म और पाप करने में उन्हें शर्म आती है। विषयों से वे विरक्त हो जाते हैं। उनकी इस विरक्ति का कारण होती है, जीवन का क्षणभंगुरता।
- आचारांग सूत्र 1/2/1